हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि जनता की आवाज ही सबसे बड़ी आवाज होती है। राज्य में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार के खिलाफ जनता की नाराजगी को कांग्रेस ने अपने पक्ष में भुनाने में सफलता हासिल की। इसी वजह से पार्टी को लोकसभा चुनाव में 5 सीटें मिलीं।
जनता के मूड को समझा
कांग्रेस के नेताओं ने भाजपा सरकार की नीतियों से जनता की नाराजगी को भांप लिया था। इसलिए उन्होंने अपनी पूरी चुनाव प्रचार अभियान को इसी नाराजगी को अपने पक्ष में भुनाने पर केंद्रित किया। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा से लेकर सैलजा और रणदीप सुरजेवाला तक, सभी कांग्रेसी नेताओं ने भाजपा सरकार को उसकी नीतियों के लिए सीधे निशाने पर रखा।
आवाम से जुड़े मुद्दों को उठाने के कारण आम पब्लिक ने भी उनसे कनेक्ट महसूस किया। भाजपा सरकार की नीतियों को कोसने के साथ-साथ हुड्डा अपनी हर सभा में यह भी बताते रहे कि अगर राज्य में कांग्रेस की सरकार बनी तो वह हर वर्ग के लिए क्या-क्या करेंगे। उनका ये फार्मूला काम कर गया।
जाटों-किसानों की एकमुश्त वोटिंग
जाटों और जटसिखों के दबदबे वाली हिसार, सिरसा, सोनीपत, अंबाला और रोहतक सीट पर कांग्रेस की जीत से साफ हो गया कि यहां इस बिरादरी ने कांग्रेस के पक्ष में एकमुश्त वोटिंग की। वह जाटों का प्रतिनिधित्व करने का दम भरने वाले सियासी दलों के झांसे में नहीं आए। जाट-किसान वोटरों का एकमुश्त समर्थन कांग्रेस को मिला, इससे साफ होता है। अगर सिरसा सीट पर इनेलो कैंडिडेट संदीप लोट को छोड़ दें तो बाकी चारों सीटों पर तीसरे नंबर पर रहने वाले कैंडिडेट को 25 हजार वोट भी नहीं मिले। इससे साफ है कि जाटों-किसानों का वोट बिखरा नहीं।
परिवारों की पकड़
कुछ सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवारों के परिवारों की व्यक्तिगत पकड़ भी उनकी जीत में अहम भूमिका निभाई। सिरसा सीट पर सैलजा 2 लाख 68 हजार 497 वोटों से जीतीं। यहां उनके परिवार का व्यक्तिगत रसूख है और इसका फायदा उन्हें मिला। यहां सैलजा को टिकट देने का फैसला भी ग्राउंड से उठी डिमांड के बाद ही लिया गया था।
इसी तरह रोहतक सीट पर कांग्रेस के दीपेंद्र हुड्डा ने लगभग साढ़े 3 लाख वोटों से जीत दर्ज की। विनिंग मार्जिन के लिहाज से कांग्रेस को मिली पांचों सीटों में रोहतक पहले नंबर पर रही। दीपेंद्र की ये जीत कांग्रेस से ज्यादा, रोहतक बेल्ट में हुड्डा फैमिली की अपनी पकड़ का नतीजा है।
एकजुटता का असर
पूरे हरियाणा में चुनाव के दौरान अगर कांग्रेस कहीं एकजुट नजर आई तो वह अंबाला लोकसभा हलका रहा। यहां के नए सांसद वरुण चौधरी मुलाना को टिकट बेशक हुड्डा कैंप की पैरवी से मिला लेकिन सैलजा गुट में भी वरुण की अच्छी पैठ है। पूर्व मंत्री निर्मल चौधरी की चुनाव से कुछ समय पहले कांग्रेस में हुई वापसी का फायदा भी वरुण को मिला।
कमजोर उम्मीदवारों से नुकसान
हालांकि, कुछ सीटों पर कमजोर उम्मीदवारों को टिकट देने की वजह से कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ा। कांग्रेस ने करनाल लोकसभा सीट पर अपने यूथ विंग के नेता दिव्यांशु बुद्धिराजा को टिकट दिया। दिव्यांशु के नाम का ऐलान होते ही क्लियर हो गया था कि कांग्रेस ने इस सीट पर BJP के मनोहर लाल खट्टर को एक तरह से वॉकओवर दे दिया है।
करनाल के कांग्रेसी नेताओं के तमाम तरह के असहयोग के बावजूद दिव्यांशु 4 लाख 79 हजार से ज्यादा वोट लेने में कामयाब रहे। अगर कांग्रेस इस सीट पर किसी बड़े चेहरे को उतारती और करनाल के नेता उसका साथ देते तो भाजपा को यहां परेशानी हो सकती थी। साफ है कि कमजोर उम्मीदवार चुनने से कांग्रेस को करनाल सीट पर नुकसान उठाना पड़ा।
इसी तरह, अगर कांग्रेस अन्य सीटों पर भी मजबूत उम्मीदवारों को टिकट देती और पार्टी के भीतर की गुटबाजी और आंतरिक कलह नहीं होता, तो उसे और अधिक सफलता मिल सकती थी। लेकिन फिर भी, जनता की आवाज को समझने और उसकी भावनाओं को अपने पक्ष में करने में कांग्रेस कामयाब रही, जिसका परिणाम 5 सीटों पर जीत के रूप में देखने को मिला।
गुटबाजी की समस्या
हरियाणा में कांग्रेसी नेताओं की गुटबाजी भी पार्टी के लिए एक बड़ी समस्या बनी रही। इसका नुकसान पार्टी को कम से कम 2 सीटें गवांकर भुगतना पड़ा। भिवानी-महेंद्रगढ़ सीट पर पूर्व मंत्री किरण चौधरी और गुरुग्राम में पूर्व कैबिनेट मंत्री कैप्टन अजय यादव ने टिकट कटने के बाद अपनी नाराजगी खुलकर जताई।
किरण चौधरी ने तो हुड्डा कैंप पर उनकी सियासी हत्या की साजिश रचने जैसे आरोप तक लगा डाले। इस सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार राव दान सिंह की हार का अंतर 41 हजार 510 वोट रहा। भिवानी जिले की 3 में से 2 सीटों पर भाजपा को लीड मिली। इनमें किरण चौधरी की तोशाम सीट शामिल रही। अगर पार्टी के नेता एकजुटता दिखाते तो यहां रिजल्ट कांग्रेस के पक्ष में भी आ सकता था।
गुरुग्राम सीट पर भी यही कहानी रही। यहां कांग्रेस कैंडिडेट राज बब्बर 75 हजार वोट से हारे। लालू यादव के समधी कैप्टन अजय यादव इस सीट पर लंबे अर्से से एक्टिव थे लेकिन पार्टी ने ऐन मौके पर उनकी जगह राज बब्बर को टिकट थमा दिया। इससे कैप्टन नाराज हो गए। राज बब्बर की इलेक्शन कैंपेनिंग के दौरान अजय यादव बहुत कम मौकों पर नजर आए।
फरीदाबाद सीट पर भी टिकट न मिलने के कारण पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा के समधी करण दलाल की नाराजगी देखने को मिली। ऐसे में साफ है कि अगर पार्टी में गुटबाजी न होती और सभी नेता एकजुट होकर काम करते तो कांग्रेस को और अधिक सीटें मिल सकती थीं।
चौधर की लड़ाई का असर
लोकसभा चुनाव में कांग्रेसी नेताओं के बीच चलने वाली 'चौधर की लड़ाई' भी जमकर देखने को मिली। पूर्व केंद्रीय मंत्री बीरेंद्र सिंह शुरू से आखिर तक बांगर बेल्ट में हिसार के उम्मीदवार जयप्रकाश जेपी को नीचा दिखाने की कोशिश करते नजर आए। हालांकि चुनाव नतीजों में जेपी को सबसे बड़ी लीड बीरेंद्र सिंह के गढ़ उचाना से ही मिली।
जयप्रकाश जेपी के हुड्डा कैंप से जुड़े होने के कारण सैलजा, किरण चौधरी और रणदीप सुरजेवाला की तिकड़ी ने हिसार में एक सभा तक नहीं की। सैलजा सिरसा तक सिमटी रही तो रणदीप सिरसा के अलावा कुरुक्षेत्र एरिया में एक्टिव रहे। ऐसे में अगर कांग्रेसी नेताओं के बीच आपसी मतभेदों की इस लड़ाई न होती तो शायद पार्टी को हिसार सीट भी मिल सकती थी।
गठबंधन की कीमत चुकाई
कांग्रेस ने I.N.D.I.A. गठबंधन के तहत कुरूक्षेत्र सीट आम आदमी पार्टी (AAP) को दी थी। इसलिए यहां कांग्रेस का चुनाव चिन्ह गायब रहा। आम आदमी पार्टी से उसकी हरियाणा इकाई के प्रदेशाध्यक्ष सुशील गुप्ता कुरूक्षेत्र के रण में उतरे तो पार्टी की पूरी लीडरशिप यहां डट गई।
कांग्रेस से भूपेंद्र हुड्डा और रणदीप सुरजेवाला ने सुशील गुप्ता के लिए प्रचार किया लेकिन राज्य की दूसरी किसी सीट पर AAP नेताओं ने कांग्रेस उम्मीदवारों के लिए ऐसा जोर नहीं लगाया। ऐसे में कहा नहीं जा सकता कि AAP ने बाकी 9 सीटों पर अपना कितना वोट बैंक कांग्रेस के पक्ष में शिफ्ट कराया? हालांकि, कुरूक्षेत्र में सुशील गुप्ता को कांग्रेसी कैडर के वोट जरूर मिले होंगे।
इस तरह, हालांकि कांग्रेस हरियाणा में अपनी वापसी करने में कामयाब रही, लेकिन गुटबाजी, चौधर की लड़ाई और गठबंधन की कीमत भी उसे चुकानी पड़ी। अगर पार्टी ने इन मुद्दों का समाधान कर लिया होता तो उसे और अधिक सीटें मिल सकती थीं। फिर भी, जनता की आवाज को सुनकर और उसकी भावनाओं को समझकर उसे अपने पक्ष में करने में सफल रहना ही कांग्रेस की सबसे बड़ी उपलब्धि रही।
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