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विशेष : यशवीर कादियान जी की कलम से....✒️
चिराग हूं,अंधेरों से नहीं बनती, मैं रातों रात जला, सुबह देखने हैं तमन्नाओं के शहर, मैं रातों रात चला।।
ओम प्रकाश चौटाला जी को अगर एक शब्द में बयान करना हो तो कहा जा सकता है वो वन मैन आर्मी थे। मर्द आदमी थे। गलत या सही हो,जो भी उनको एक दफा जच गया तो जच गया। फिर वो उसके लिए कट सकते हैं, लेकिन झुकना उनकी फितरित में नहीं था। डट गए तो डट गए। अड़ गए तो अड़ गए। लड़ गए तो लड़ गए। अंजाम की परवाह उनको थी नहीं। जैसे कि एक फिल्मी डायलोग भी है..एक दफा जब मैं कमिटमेंट कर लेता हूं तो फिर अपने आप की भी सुनता। कुछ ऐसे ही थे अपने चौटाला जी।
मदिरापान और धूम्रपान से दूर रहते थे
उनका एक वीडियो भी वायरल हो रहा है,जिसमें वो कह रहे हैं कि मैं तो 115 बरस तक जीऊंगा। ऐसे में उनका यूँ अचानक से चले जाना अकल्पनीय है। उनका जीवन बेहद अनुशासित था। वो सादा खाना खाते थे। शुद्ध शाकाहारी थे। मदिरापान और धूम्रपान से दूर रहते थे। खूब अपनी संभाल रखते थे। बचपन में पोलियो हो जाने के कारण उनकी टांगे बेहद कमजोर थी और उनके हाथ की उगंलियां टेडी हो गई थी। उनको चलने के लिए सहारे की जरूरत पड़ती थी,लेकिन उन जैसा मेहनती और जीवट कोई कोई होता है। वो अत्यंत संभल संभल कर खाते थे। इसलिए वो 89 बरस का जीवन भी जी पाए। हालांकि उन से उनके दो छोटे भाई जगदीश और प्रताप चौटाला उनसे पहले ही इस दुनिया को अलविदा कह गए थे।
पांच दफा सीएम रहे
हरियाणा के पांच दफा हरियाणा के सीएम रहे ओपी चौटाला पर किस्मत खूब मेहरबान रही। उन्होंने इसी जीवन में सब देखा और भोगा। अर्श पर भी रहे और फर्श पर भी रहे। स्वर्ग भी भोगा और नरक भी झेला। एक समय उनकी हरियाणा प्रदेश,जनता,पार्टी,सरकार और परिवार पर जबरदस्त पकड़ थी। गजब के प्रशासक थे। किसी को चूं नहीं करने देते थे। फिर उन्हीं चौटाला के साथ ये सब हुआ कि ना तो उनकी परिवार पर पकड़ रही और ना ही पार्टी पर।
उनके जीते जी ही परिवार टूटा और उनकी इनैलो पार्टी बिखरी। वो हरियाणा के पहले ऐसे शख्स रहे जो प्रदेश के सीएम भी रहे और उनको जेबीटी शिक्षकों की भर्ती में गड़बड़ी के मामले में दस बरस जेल की सजा भी हुई। ये संभवत: ऐसा अनोखा मामला था कि जिसने उनके ऊपर गड़बड़ी के आरोप लगाए उन याचिकर्त्ता 1985 बैच के आईएएस संजीव कुमार और चौटाला दोनों को ही अदालत ने जेल की सजा सुनाई।
पांच दिन के सीएम
ओपी चौटाला का जन्म 1 जनवरी,1935 को हुआ। हरियाणा के सियासी पटल पर इस धूमकेतु ने अपनी चमक तो अपने जन्म के करीब पांच दशक दफा 2 दिसंबर,1989 को बिखेरी जब वो पहली दफा सीएम बने। उसके बाद वो छह महीने से कम समय में ही 22 मई को हट भी गए। फिर पांच दिन के लिए ही सीएम बने। 12 जुलाई 1990 से 17 जुलाई तक। फिर 22 मार्च 1991 से 6 अप्रैल तक भी सीएम रहे।
आखिर में हरियाणा में राष्ट्रपति शासन लगा। उनकी सरकार बर्खास्त हुई। जिन चौटाला के पास कभी 90 में से 85 विधायकों का समर्थन हुआ करता था वो पूरे पांच बरस सरकार नहीं चला पाए। महम कांड के कारण उनको बेआबरू तरीके से सत्ता छोड़नी पड़ी। उसके बाद के सियासी हालात के मददेनजर उनके उपप्रधानमंत्री पिता देवीलाल ने उनको 1991 का विधानसभा का चुनाव नहीं लड़वाया। खुद देवीलाल लोकसभा और विधानसभा से हार गए। हरियाणा में कांग्रेस सरकार आ गई और भजनलाल सीएम बन गए।
..यूँ हुआ फिर से उदय चौटाला का
जब 1993 में शमशेर सुरजेवाला राज्यसभा में गए तो उनकी विधानसभा नरवाना सीट पर उपचुुनाव की नौबत आ गई। शमेशर सुरजेवाला के बेटे रणदीप सुरजेवाला के सामने ओम प्रकाश चौटाला ने चुनाव लड़ा। रणदीप का ये पहला विधानसभा चुनाव था। चौटाला ने इस चुनाव में खूब मेहनत की। लगभग हर गांव- हर चौखट पर दस्तक दी। इसका नतीजा ये हुआ कि वो करीब 20 हजार के बड़े अंतर से चुनाव जीत गए। चुनाव जीतने के बाद उनमें आत्मविश्वास बढ़ गया। उसके बाद जिलों में उनका अभिनंदन हुआ। इसी एक कार्यक्रम में वो रोहतक में हुडा काम्पलैक्स में भाषण दे रहे थे और मुझे पहली दफा उनको सुनने का अवसर मिला।
तब का उनका भाषण आज भी मेरी कानों में गूंज रहा है। तब रोहतक के एसपी रहे शील मधुर से खफा चौटाला उनको चेताते हुए उन पर कुछ यूँ गरजे थे.. मेरा नाम ओम प्रकाश चौटाला है। मैं श्मशान तक अपने विरोधी का पीछा किया करता हूँ। कब्र में से भी मुर्दे को निकाल कर हिसाब चुकता करना जानता हूँ। इसी भाषण में उन्होंने कार्यकर्ताओं में जोश भरते हुए कहा..जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं किया करती हैं।
फिर बंसीलाल बने सीएम
भजनलाल के बाद 1996 के चुनाव में बंसीलाल हरियाणा के सीएम बने। ये हविपा और भाजपा गठबंधन की सरकार थी। शराबबंदी के नारे पर सवार होकर सत्ता में आए बंसीलाल में इस दफा पहले वाली ठसक नहीं थी। इसकी वजह ये कि उनकी सरकार भाजपा के समर्थन पर आश्रित थी। दलबदल कानून प्रभावी न होने के वजह से हविपा के कई मंत्री और विधायक उनको आंखे दिखाने लगे थे। हालात ये हुई कि उनके ही कई विधायक और मंत्री उन से भाग खड़े हुए। भाजपा ने भी उन से समर्थन वापस ले लिया।
इन से निपटने के लिए बंसीलाल ने विपक्षी कांग्रेस का समर्थन हासिल कर लिया। तब ये डील हुई थी कि विधानसभा में बहुमत साबित करने के बाद बंसीलाल इस्तीफा दे देंगे और कांग्रेस का सीएम बनेगा। बंसीलाल ने कांग्रेस का समर्थन तो ले लिया लेकिन बाकी की शर्तें मानने से पलट गए। शायद उनको लगा कि कांग्रेस के पास उनको सीएम बने रहने देने के अलावा चारा ही क्या है? लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया।
..और हो गई चौटाला की धांसू एंट्री
तब ऐसा लग रहा था कि सारी कायनात ही ओपी चौटाला को सीएम बनाने के लिए जुटी हो। जैसे ही कांग्रेस ने बंसीलाल सरकार से समर्थन वापस लिया उन्होंने राज्यपाल को अपना इस्तीफा सौंपा और विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर दी। तब हरियाणा के राज्यपाल हुआ करते थे महावीर प्रसाद। वे पुराने कांग्रेसी थे। बंसीलाल भी पुराने कांग्रेसी थे। ऐसा माना जा रहा था कि महावीर प्रसाद विधानसभा भंग करेंगे,लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।
हविपा के जो मंत्री और विधायक बंसीलाल सरकार से ये सोच कर भागे थे कि वो सीएम बन जाएंगे उनमें जूतम पैजार शुरू हो गई। उनमें किसी एक को अपना नेता बनाने के लिए सहमति नहीं बनी। वहां हर कोई सीएम का दावेदार था। इसी सियासी उठापठक के दौरान चौटाला ने भाजपा आलाकमान से बात कर अपने लिए समर्थन जुटा लिया। तब उन बागी हविपाईयों के पास भी चौटाला को सीएम मानने के अलावा चारा नहीं था। नतीजा ये हुआ कि ओमप्रकाश चौटाला ने 24 जुलाई,1999 को चौथी दफा सीएम पद की शपथ ली। तब चौटाला ने क्या खूब ही लुभाया। जनता को भी और नाराज हविपाईयों को भी। सरकार को समर्थन देने वाले हविपाईयों से चौटाला ने कई वादे किए।
एक वादा तो ये कि जिसको बंसीलाल सरकार में जो कुछ पद मिला मेरी सरकार में उसे ज्यादा मिलेगा। यानी जो एक विभाग का वहां मंत्री था तो मैं उसे दो विभाग दूंगा। जिसे बंसीलाल सरकार में दो विभाग मिले हुए हैं तो मैं उसे तीन विभाग दूंगा। दूसरा वादा उन्होंने ये किया कि विधानसभा चुनाव तय समय पर यानी मई 2001 में होंगे। तीसरा वादा उन्होंने ये किया वो आगामी विधानसभा चुनाव में उन सब हविपाईयों को अपनी पार्टी का टिकट देंगे जिन्होंने बंसीलाल से गद्दारी कर उनकी सरकार बनवाई है।
पहले पहले खूब ही नरम रहे चौटाला
चौटाला ने तब अत्यंत नरमाई से सरकार चलाई। समाज के विभिन्न वर्गो के लिए राहतों और रियायतों का पिटारा खोल दिया। इसका नतीजा ये हुआ कि लोकसभा चुनाव में उन्होंने दस की दस सीट जीत ली। पांच उन्होंने और पांच उनकी सहयोगी भाजपा ने। हरियाणा में चौटाला सरकार के प्रति माहौल बन गया था। जिस चौटाला से महम कांड के बाद लोग नफरत करने लगे थे उन चौटाला के लोग मुरीद हो गए।
उनको लोगों ने सिर आंखों पर बिठा लिया। लोग उनका नाम आदर के साथ लेने लगे। यहां तक कि बहुत से लोग ये कहने लगे कि हम ही इनको गलत समझते थे, ये तो बहुत अच्छे आदमी हैं। चौटाला की जनता में साख बढ़ गई। इसका चौटाला ने कुछ यूं फायदा उठाया कि उन्होंने अचानक से विधानसभा भंग करवा हरियाणा में डेढ बरस पहले ही मध्यावधि चुनाव करवा दिए।
असली रंग दिखाने लगे चौटाला
वर्ष 2000 में हुए विधानसभा चुनाव में चौटाला ने धीरे धीरे अपना असली रंग दिखाने लगे। जो उन्होंने हविपाईयों से वादे किए वो कोई पूरा नहीं किया। ना तो उन्होंने अपनी सरकार बनवाने वाले हविपाईयों को टिकट दिया और ना ही भाजपा से गठबंधन का धर्म निभाया। ना पूरे पांच बरस सरकार ही चलाई। बेशक उन्होंने 90 विधानसभा सीटों में से 29 सीटें भाजपा को दे दी, लेकिन ऐसा व्यूह रच दिया कि उनके सामने किसी की एक न चली। तब नरेंद्र मोदी हरियाणा के प्रभारी महासचिव थे। तब मोदी आज के मोदी नहीं थे। ऐसा लगता है कि हरियाणा के प्रभारी रहने का उनका अनुभव बाद में उनको मोदी बनाने में काफी कारगर रहा। राजनीति क्या होती है..ये चौटाला ने उनको बताया और सिखाया। तब भाजपा आधी सीट यानी 45 सीट मांग रही थी।
चौटाला ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि क्या भाजपा की हैसियत आधी सीटों पर चुनाव लड़ने की हो गई है? क्या उनके पास 45 सीटों के लिए उम्मीदवार भी हैं? चौटाला ने भाजपा को 29 सीटों पर समेट दिया और उनको आदमपुर टाइप ऐसी कई सीटें दे दी जहां से भाजपा की जीतने की संभावना दूर दूर तक ना थी। चौटाला ने तब एक काम और गजब का किया। जो ये दिखाता और बताता है कि चौटाला की सोच कहां तक थी। उन्होंने जो 29 सीटें भाजपा को दी उनमें से कईयों को अपनी पार्टी इनैलो के कार्यकर्त्ताओं को निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर खड़ा करवा दिया।
इसका असर ये हुआ कि या तो ये इनैलो के निर्दलीय जीत गए या फिर इन्होंने उन सीटों पर भाजपाईयों की लुटिया डुबो दी। मिसाल के तौर अपनी पार्टी के गोपीचंद गहलौत को गुड़गांव और रामभगत शर्मा को नारनौंद से निर्दलीय चुनाव लड़वा दिया। इन सीटों पर भाजपा के सीताराम सिंगला और रामकुमार गौतम दोनों ही पाणी पी गए और ये निर्दलीय जीत गए। इसी तरह उन्होंने जींद में अपनी पार्टी के ही एक कार्यकर्ता को निर्दलीय उतार दिया। ये सीट भाजपा के खाते में थी। इसका असर ये हुआ कि यहां कांग्रेस के मांगेराम गुप्ता जीत गए।
चौटाला की इस रणनीति का असर ये रहा कि वो 90 में से 47 सीट गए। यानी उनको अपने बूते पर पूर्ण बहुमत मिल गया। भाजपा के बने थे छह विधायक। कहने को इस सरकार में भाजपा का इनेलो को समर्थन था,लेकिन इसमें भाजपा की कोई कहाणी थी नहीं। ना वो तीन में थी ना तेरह में। भाजपाई उम्मीदवारों को हरवाने की अपनी इस रणनीति के बारे में मुझे एक इंटरव्यू में चौटाला ने कहा था कि ऐसा करना मेरे लिए बेहद जरूरी थी। अगर कहीं मेरी सरकार भाजपा के रहमो करम पर चलती तो ये मुझे भी ऐसे ही ब्लैकमेल करते जैसे इन्होंने बंसीलाल को किया था। फिर मैं इनका गुलाम बन कर रह जाता। फिर तो चला ली थी सरकार मैंने। क्योंकि इनको रूठने की आदत बहुत है और मुझे रूठे हुओं को मनाने से नफरत है।
पांचवीं दफा सीएम बनने पर खुल कर खेले चौटाला
5 मार्च, 2000 में जब चौटाला पांचवीं दफा हरियाणा का सीएम बने तो वो क्या ही दौर था। तौबा..तौबा। गजब। उनका क्या जलवा था। क्या रूतबा था। दैट वाज द रियल.. रियल चौटाला। तब क्या राज किया इन्होंने। शब्दों में बयान करना मुश्किल। चपरासी का भी तबादला इनकी मर्जी के बिना नहीं होता था। मजाल क्या कोई पर मार जाए। क्या पकड़ थी प्रशासन पर। एक सप्ताह में पूरा हरियाणा नाप देते थे। लगभग आए दिन ही दौरे पर रहते थे। शायद ही ऐसा कोई डीसी होगा जिसके यहां पांचवें-छठे दिन ये ना पहुंच जाते हो। हर महीने डीसी और एसपी कांफ्रेस होनी ही होनी थी। ये अटल ही था। जनहित के जरूरी मुद्दों को इस मीटिंग एजेंडे में शामिल किया जाता। इनका रिव्यू किया जाता। अफसरों से जवाबतलबी की जाती। उनकी जवाबदेही तय की जाती। ये काम हुआ नहीं तो क्यों नहीं हुआ? कब तक हो जाएगा? बड़े बड़ों के इस मीटिंग के नाम पर पसीने छूटते थे।
दूसरा मौका देने की आदत नहीं थी
चौटाला अच्छा काम करने वाले अफसरों को शाबाशी देते और खराब कराने वालों को सजा देने में कभी कोताही नहीं करते थे। दूसरा मौका देने में उनका रत्ती भर भरोसा नहीं था। अगर किसी अफसर ने उनका भरोसा तोड़ा तो उसको सबक सिखाने में कभी कोताही नहीं की। उसे खुडडेलाइन लगाने या जेल भेजने तक में कहीं कोई नरमाई नहीं दिखाई। उनके पास रहम की कोई अपील और दलील नहीं थी। अगर किसी ने गददारी की तो उसको सजा मिलेगी। बरोबर मिलेगी। बिना देर के मिलेगी और जितना कसूर है उस से बढ कर मिलेगी।
भले ही कसूरवार एक समय उनका कितना ही सगा रहा हो या पहले कितना ही उनका वफादार रहा हो। अगर गलती कर दी तो फिर वो उसे सजा देकर ही रहते थे। किसी की सिफारिश नहीं मानते थे। उन्होंने मुख्यमंत्री सचिवालय से भी अफसरों को विदाई करने में कोई हिचक और झिझक नहीं दिखाई। भरोसा टूटा तो विजिलेंस जांच शुरू करवा दी मिसाल के तौर पर अपने खासम खास रहे आईएएस डा.हरबख्श सिंह को सीएम बनते ही 1999 में एचएसआईआईडीसी का एमडी लगाया। 2005 में विधानसभा चुनाव होने से चंद महीने पहले चौटाला के संज्ञान में आया कि हरबख्श ने औद्योगिक प्लाटों के आंवटन में गड़बड़ी की है।
चौटाला ने झट से उनको वहां से हटा दिया। उनकी विजिलैंस जांच शुरू करवा दी। तब एक रात डा.हरबख्श सिंह ने मुझे फोन कर के कहां कि पता करो कि कहीं मुझे चौटाला गिरफ्तार करवाने तो नहीं जा रहे। मैँने उनसे कहा कि नहीं ऐसा नहीं है। वो हरगिज ऐसा नहीं करेंगे। तब हरबख्श बोले.. काका तू इना नूं जाणदा नहीं। मैं जानता हूं। मैंने इनको करीब से देखा है। इनका नाम चौटाला है। ये कुछ भी कर सकते हैं। कुछ भी।
माफ नहीं करते थे
चौटाला के व्यक्तित्व में कई तरह के रंग थे। उनकी पर्सनैलिटी में परस्पर विरोधी भाव थे। अगले पल वो क्या करेंगे,अंदाजा लगाना मुश्किल था। जैसे कि उन्होंने अपनी सरकार बनाने वाले हविपाईयों का तबियत से इलाज किया। साथ देने वाली भाजपा को भी नहीं बख्शा। रगड़ा लगाने, इलाज करने में वो माहिर थे। जुर्म का पता लगते ही इलाज करने के लिए झट से इंजैक्शन उठा लेते थे। दस्ताने पहन लेते थे। ऑपरेशन कर देते थे। अगर वो माफ करने की आदत अपना लेते तो वो कुछ और ही होते। कहीं और ही होते। कहीं ज्यादा आगे होते। उनमें बदला लेने की भावना कूट कूट कर भरी थी। जिसने उनका कभी कोई छोटा सा भी नुकसान कर दिया उसे उन्होंने कभी नहीं बख्शा। जुर्म से कई गुना बढ कर सजा दी। माफ करना उनके स्वभाव में था ही नहीं।
प्रशासन पर थी पकड़
चौटाला के सीएम रहते हरियाणा ने विकास की खूब कुलांचे भरी। वो प्रशासनिक कामों में खूब दिलचस्पी लेते थे। लोगों की तकलीफों और मिजाज को समझते थे। दूरदर्शी थे। वैट टैक्स को देश भर में उन्होंने ही सब से पहले हरियाणा मतें इंट्रोड्यूस किया। हालांकि वैट लागू करने का उनको सियासी नुकसान भी हुआ,लेकिन उन्होंने इसकी रत्ती भर परवाह नहीं की। हालांकि तब वो मैट्रिक भी नहीं पढे थे, तो भी उनको गूढ व जटिल विषयों पर उनकी जबरदस्त पकड़ थी। उनके विशेष सचिव और पूर्व मुख्य सचिव एस.सी.चौधरी कहते हैं कि वो जटिल से जटिल मुददों को आसानी से समझ लेते थे और उनके पास बड़ी से बड़ी समस्याओं के समाधान मौजूद रहते थे। वो अपने लोगों के सुख और दुख में जरूर जाते थे। वो एक तीक्ष्ण बुद्धि व्यक्ति थे।
अफसरों पर भरोसा करते थे
वो अफसरों पर भरोसा भी करते थे और उनको काम करने के लिए फ्री हैंड भी देते थे। उनके व्यक्तित्व को ऐसे समझा जा सकता है.. एक दफा वो सरकार आपके द्वार कार्यक्रम में गुरूगाम का दौरा कर रहे थे। तब नूंह जिला गुड़गांव का ही हिस्सा होता था। मौजूदा राजस्व व वित्त विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव अनुराग रस्तोगी तब गुड़गांव के डीसी होते थे। नूंह के एक गांव में कुछ लोगों ने जिला प्रशासन पर कुछ गंभीर आरोप लगा दिए। जो लोग आरोप लगा रहे थे उनमें से एक इनैलो का पदाधिकारी भी था। कड़क मिजाज चौटाला ने तभी डीसी से पूछा कि ये क्या माजरा है?
तब अनुराग रस्तोगी ने उनको कहा कि वो बाद में उनको बताएंगे। सरकार आप के द्वार कार्यक्रम खत्म करने के बाद जैसे ही चौटाला सरकारी रैस्ट हाउस में पहुंचे उन्होंने झट से अनुराग रस्तोगी से पड़ताल की। अनुराग रस्तोगी ने उनको बताया कि प्रशासन पर आरोप गलत लगाए जा रहे हैं। इनेलो पदाधिकारी सरकारी जमीन पर कब्जा करवाने की फिराक में है। वो गलत लोगों की तरफदारी कर रहा था। ये सुनते ही चौटाला का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। उन्होंने फोन मिलवा कर उन इनेलो पदाधिकारी को डांट लगाई कि तुम मुझे मिसगाइड करते हो। आइंदा से मैं ये सब बर्दाश्त नहीं करूंगा।
ये किस्सा नए अफसरों के लिए एक सीख भी है कि अगर कभी उनके सामने ऐसा विषय आ जाए तो उसे कैसे टैक्टफूली हैंडल करना है। ये अनुराग रस्तोगी से सीख सकते हैं कि जिन चौटाला के खौफ से अफसरशाही थर्राती थी उनके सामने उन्होंने निडर और निर्भीक होकर असलियत बयान की। तरीके से बयान की। भीड़ में नहीं,अकेले में और फिर चौटाला ने अपने वर्कर का नहीं,अफसर का साथ दिया।
वधवा का कहा नहीं टालते थे
चौटाला को अगर कोई अफसर जम गया-नजर में चढ गया तो फिर वो आंख मूंद कर उन पर भरोसा करते थे। ऐसे ही उनके एक विश्वासपात्र आईएएस अफसर थे एन.सी.वधवा। वधवा को उन्होंने करीब साढ़े चार साल टाउन व कंट्री प्लानिंग का निदेशक रखा। तब निदेशक के पास ही हुडा या मौजूदा एचएसवीपी के सीए का दायित्व भी रहता था। ये दोनों ही पद आज भी महत्वपूर्ण हैं और तब तो इसलिए भी ज्यादा थे कि दोनों का चार्ज ही एक अफसर के पास रहता था। वधवा ने जो कह दिया और जो कर दिया, उन से कभी चौटाला ने जवाब तलबी नहीं की। वधवा कहते हैं कि चौटाला साहब का उन पर अगाध स्नेह और अटूट भरोसा था।
चौटाला साहब के परिवार के लोग भी कभी उन से नाराज हो जाते थे, कि न जाने उन्होंने सीएम साहब के ऊपर क्या जादू कर रखा है जो उनके आगे हमारी बात भी नहीं सुनते। वधवा के पास ऐसे अनेकों किस्से हैं जब किसी काम के लिए उन्होंने चौटाला साहब को गलत बताते हुए उसे करने से ना कर दी तो उन्होंने उस काम को कभी नहीं किया। हालांकि वो काम बाद की सरकारों में एक झटके में हुए, लेकिन चौटाला ने नहीं किए। प्रशासनिक मामले में चौटाला अफसरों की राय को महत्व देते थे। अगर कोई उनका अपना कभी दबाव देता तो वो कह भी दिया करते थे कि मुझे जेल भिजवाओगे क्या? मैं ये गलत काम हरगिज नहीं करूंगा।
वर्करों का करते थे सम्मान
अब ऐसा भी नहीं था कि चौटाला हमेशा ही अफसरों की सारी की सारी मानते हों। सब उनका ही कहा करते हों। अपने वर्करों को भी बहुत सम्मान देते थे। उनको आबाद करने उनको आर्थिक तौर पर समृद्ध करने की भी सोचा करते थे। अफसरों को फोन पर कह दिया करते थे कि ये फलां तो मेरा पुराना वर्कर है। इसका काम तो आप को करना ही पड़ेगा। कुछ उन्नीस-इक्कीस भी हो तो इस काम करने का रास्ता निकालना।
नहीं अहसास था कि जल्दी चुनाव हारेंगे
शायद...चौटाला ऐसा सोचते थे कि वो अभी तो कई चुनाव जीतेंगे-अभी कई दफा सीएम बनेंगे। तभी तो उन्होंने एक दफा विधानसभा में कह भी दिया था कि मैं जब तक जिऊंगा, सीएम रहूंगा। उन्होंने अपनी पार्टी के सीनियर नेताओं का एक शिष्टमंडल पश्चिमी बंगाल में दौरे पर भी ये जानने के लिए भेजा था कि क्यों वहां इतनी दफा ज्योति बसु लगातार सीएम बनते आ रहे हैं? क्यों वाम मोर्चे की सरकार बंगाल में लगातार रिपीट हो रही है? इस शिष्टमंडल ने वापस आकर बताया कि वहां वर्करों की सरकार में काफी कद्र होती है तो चौटाला ने कहा कि ये काम तो हम हमारी सरकार में पहले दिन से कर रहे हैं।
जुबान से पलट जाते थे
यूं तो चौटाला की छवि जुबान के धनी की थी,लेकिन वो मौके पर सुविधा अनुसार अपने कहे पर पलट भी जाते थे। जैसे कि जब वो विपक्ष में थे तो कहते थे कि ना तो मीटर रहेगा और ना रीडर रहेगा। जब कभी उनका राज आएगा तो वो बिजली के बिल माफ कर देंगे। इस कारण से किसान उनके बहकावे में आए और उन्होंने बंसीलाल सरकार में बिजली बिलों के खिलाफ आंदोलन किया। चौटाला ने इस आंदोलन को खूब हवा दी। तब कादमा में आंदोलनरत किसानों पर बंसीलाल सरकार में गोली चली और कुछ किसान मारे गए। तब शायद चौटाला को ये इल्म नहीं रहा होगा कि वो जो बो रहे हैं उनको वो काटना भी पड़ेगा।
किसानों पर गोली चलने का हुआ सियासी नुकसान
जब चौटाला पांचवीं दफा सीएम बने तो जींद के कंडेला गांव में किसानों ने बिजली बिलों की माफी के लिए आंदोलन कर दिया। एक डीएसपी को बंधक बना दिया। चौटाला ने बिना बात ही इसे प्रतिष्ठा का विषय बना लिया। उन्होंने आंदोलनकारियों से बात ही नहीं की। इस कारण आंदोेलनकारी उग्र हो गए और वहां पुलिस को गोलीबारी करनी पड़ी। कई किसान मारे गए। इस से चौटाला की किसान हितैषी छवि तार तार हो गई। अगर चौटाला ये समझते कि लोकतंत्र में शासक का-सरकार का किस बात का अहम और वहम? किस बात की अकड़ और मरोड़?
झुकना तो उन्होंने सीखा ही नहीं था
अगर वो इस विषय को प्रतिष्ठा का प्रश्न ना बना कर समझदारी से निपटाते तो ये मामला आसानी से सुलट सकता था। पर वो अपने स्वभाव के अनुसार इलाज करने की मुद्रा में आ चुके थे और आपको तो फिर पता ही है कि चौटाला तो चौटाला थे। झुकना तो उन्होंने सीखा ही नहीं था। अलोकप्रिय फैसले किए मुझे ऐसा लगता है कि उनके पास ढंग के सलाहकारों का भी कुछ कुछ अभाव था। जैसे कि उनका एक फैसला जिस ने उनको हरियाणा भर में अलोकप्रिय कर दिया...बिना बात के। हालांकि ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं थी। वो ये कि उन्होंने बेरोजगारों के सरकारी नौकरी का फार्म भरने की फीस 100 रुपए से बढ़ाकर 500 रुपए कर दी।
करीब चार बरस तक ये सब चलता रहा। इसकी आलोचना भी हुई कि जो बेरोजगार हैं उन से एक फार्म भरने की इतनी फीस नहीं ली जानी चाहिए। पर चौटाला नहीं माने। जब 2004 के लोकसभा चुनाव हुए तो उनका भाजपा से गठबंधन टूट चुका था। इनैलो ने अलग लोकसभा चुनाव लड़ा और दस की दस सीट हार गई। हारने वालों में उनके दोनों सुपुत्र भिवानी से अजय और कुरूक्षेत्र से अभय भी शामिल थे। दस की दस सीट हारते ही चौटाला की अकल ठिकाने आ गई और उन्होंने फार्म की कीमत 500 से 100 रूपए कर दी। पर तब तक देर हो चुकी थी।
इतनी देर कि जब 2005 के विधानसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस को 90 में से 67 सीट मिली। ये हरियाणा के इतिहास में किसी भी एक पार्टी को मिली अब तक की सर्वाधिक सीट थी। चौटाला की पार्टी को सिर्फ नौ सीट मिली और वो विपक्ष का नेता भी नहीं बन सके। इन नौ सीटों में जीतने वाले वो अकेले जाट थे। उनकी पार्टी इनेलो को एक समय जाटों की पार्टी कहा जाता था और जाटों ने ही उनको नकार दिया था। इस हालात पर कहा जा सकता है.. 'जो कहा वो नहीं किया उसने, वो किया जो नहीं कहा उसने'
पत्रकारों के साथ खट्टे मीठे रिश्ते
चौटाला के पत्रकारों के साथ मिश्रित रिश्ते थे। राज में कुछ और विपक्ष में कुछ। बहुत रंग बदलते थे। जैसे कि जब 2000 में सीएम बने तो मैं दैनिक भास्कर में था। तब इस अखबार की चंडीगढ लांचिंग समारोह में तत्कालीन उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी व पंजाब के सीएम प्रकाश सिंह बादल के साथ चौटाला भी आए थे। अखबारी प्रबंधन का हमें निर्देश था कि पैनी और धारदार खबरें की जाएं। हमने ये सिलसिला शुरू किया तो चौटाला को ये रास नहीं आया। वो हमारी नौकरी लेने पर उतारू हो गए। अखबार का प्रबंधन सरकार के दबाव के सामने दंडवत हो गया।
सरकार को खुश करने के लिए हमारे वरिष्ठ सहयोगी बलवंत तक्षक को हरियाणा बीट से हटा कर पंजाब की खबरों का दायित्व दे दिया गया और मुझे ये कहा गया कि सरकार की बजाय विपक्ष की खबरों पर ध्यान केंद्रित करो। चौटाला ने सरकारी विज्ञापन को अखबारों को अपनी मर्जी के हिसाब से इस्तेमाल करने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल किया। चौटाला सरकार में पत्रकारों की नौकरी लेने, उनका तबादला करवाने, उनकी बीट बदलवाने पर खासा जोर रहा, हालांकि ये कोई बहादुरी वाला कार्य नहीं था। इस मामले को बेहतर ढंग से हैंडल किया जाना चाहिए था। इस हालात पर एक शेर है.. पूछ लेते वो बस मिजाज मेरा कितना आसान था इलाज मेरा......
भजनलाल से सीख सकते थे चौटाला
राजनीति विरोधी होने के बावजूद चौटाला और भजनलाल में गहरी दोस्ती थी। दोनों की सोच अलग थी। पत्रकारों से जुड़ा इसी हालात का एक दूसरा उदाहरण पेश है.. मैंने एक दफा चौधरी भजनलाल के खिलाफ एक खबर लिख दी। अगले दिन सुबह सुबह उनका मुझे फोन आया और मुझे पंचकूला में अपने आवास पर नाश्ते पर बुलाया। मैं गया तो उन्होंने सिर्फ एक ही लाइन कही कि मैं तो आपको अपना आदमी मानता हूं, आपको मेरा लिहाज करना चाहिए था। उन्होंने मेरी काफी आवभगत की। उनके इस अंदाज पर ये सोचता रहा कि चौटाला और भजनलाल ने एक ही तरीके को किस तरह से अलग-अलग तरीके से हैंडल किया गया। तब मुझे ऐसा लगा कि शायद भजनलाल विपक्ष में हैं,इसलिए ऐसा कर रहे हैं,लेकिन मेरा अंदाजा गलत था। मुझे पता चला कि भजनलाल सरकार में भी पत्रकारों के प्रति नरम ही रहते थे।
चौटाला की खूबियां उनको असाधारण बनाती थी
चौटाला में जो खूबियां थी वो उनको असाधारण व्यक्ति बनाती थी। पूर्व मुख्यमंत्री बंसीलाल अपने जीवन के आखिरी दिनों में थे और एम्स में दाखिल थे। मैं उनका हालचाल मालूम करने गया। उन से चौटाला का जिक्र चल पड़ा। मैंने उन से चौटाला की खूबियां पूछी तो उन्होंने कहा कि वो मुझ से बेहतर प्रशासक थे। राज करने के लिए खौफ होना जरूरी है। चौटाला का खौफ अफसरों पर सिर चढ कर बोलता है। मेरा तो अफसरों पर यही खौफ रहा कि मैं उनकी बदली कर दूंगा या एसीआर खराब कर दूंगा, लेकिन चौटाला का अफसरों पर ये भी डर है कि कहीं वो उनको इस दुनिया से चलता ही ना कर दें।
दूसरा ये कि चौटाला जितने मेहनती हैं उतना देश भर में कोई नेता नहीं है। शारीरिक विषमताओं के बावजूद वो खूब परिश्रम करते थे। बंसीलाल ने ये भी कहा कि चौटाला ने मेरी सरकार गिराने वाले भाजपाइयों और हविपाईयों का भी बढिया इलाज किया। गौरतलब है कि जिन हविपा के विधायकों ने चौटाला को सीएम बनाने में साथ दिया था उनमें से कईयों पन उन्होंने विजिलैंस केस दर्ज करवा कर जेल भी भेजा। मौजूदा वन मंत्री राव नरबीर सिंह इसके साक्षात उदाहरण हैं।
शानदार वक्ता थे
चौटाला साहब जबरदस्त वक्ता तो थे ही। उनकी याददाश्त बेहद तेज थी और बहुत से फोन उनको रटे रहते थे। सियासी तौर पर अपनी पार्टी को आगे बढाने की उन्होंने भरपूर कोशिश की। राजस्थान और यूपी में चुनाव भी लड़ा,लेकिन उनको वहां एक सीट भी नहीं मिली। मेहनत करना उनके रोम रोम में था। हमेशा तारीख बदल कर सोते थे। यानी रात के 12 बजे के बाद ही सोते थे। मुख्यमंत्री के तौर पर वो रात को ही सरकारी फाइल निकालते थे। सीएम ऑफिस के सभी अफसरों को एक साथ बिठा कर फाइल क्लीयर किया करते थे। सुबह जल्दी उठ जाते थे। वो एक शानदार मेजबान थे और मुझे कई दफा उनके साथ वन टू वन भोजन करने का अवसर मिला। मुख्यमंत्री आवास में जब उनका आखिरी दिन था, तब भी हमने साथ में ही लंच किया था। उनके चेहरे पर राज जाने की कोई शिकन नहीं थी।
फिजूलखर्ची नहीं थी पसंद
बतौर सीएम वो डीसी एसपी से हर रात को फोन कर के जिले का ब्यौरा लेते थे। इसीलिए डीसी-एसपी दारू तब तक नहीं पी पाते थे, जब चौटाला से फोन पर उनकी बात न हो जाए। चौटाला को फिजूलखर्ची पंसद नहीं थी। मुख्यमंत्री होते हुए भी वो इकोनोमी क्लास में यात्रा करते थे। हवाई मार्ग की बजाय सड़क से चलने को तरजीह देते थे। मुख्यमंत्री रहते हुए वो दक्षिण अफ्रीका गए तो उनके रहने के लिए होटल का प्रैजीडेंशियल सुईट बुक करवा दिया गया। सबंधित आईएएस अफसर उनको ये सोच कर इस सुईट में लेकर गया कि वो उन्हें शाबाशी देंगे, पर चौटाला को ये नागवार गुजरा। उन्होंने उस अफसर को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा कि सरकार है तो इसका ये मतलब नहीं कि हम पैसा यूँ उड़ाते फिरें।
कमियां पड़ती थी खूबियों पर भारी
चौटाला की कुछ कमियां उनकी लाख खूबियों पर भारी पड़ जाती थी। उन पर सरकार में रहते हुए करप्शन के बहुत इल्जाम लगे। वो काफी बदनाम हुए। हालांकि जितना बदनाम किए गए उस से काफी कम के हकदार थे। वो ज्यादा हिसाबी किताबी नहीं थे। बहुत बड़े सौदागर भी नहीं थे। भजनलाल की तरह जीओ और जीने दो में कम विश्वास करते थे। रिश्तों को बहुत अहमियत देते थे। उसे निभाने में भरोसा रखते थे। यारों के यार थे। पर उनको गद्दारी पंसद नहीं थी।
मिसाल के तौर पर एक सीनियर आईपीएस अफसर ने उनको कुछ बताया। चौटाला ने उनकी बात पर भरोसा कर लिया। बाद में क्रॉस चैक किया तो पुलिस अफसर का कहा सच नहीं निकला। इसमें कुछ फीसदी मिलावट पाई गई। चौटाला को ये कहां बर्दाश्त होना था। उन्होंने किया भी नहीं। झट से अफसर को मलाईदार पोस्ट से उन्होंने हटा दिया। वो बेवफाई बर्दाश्त नहीं कर थे। चाहे खांड का पानी हो जाए, सबक सिखाए बिना नहीं मानते थे।
सत्ता का केंद्रीकरण
चौटाला राज में सत्ता का जबरदस्त केंद्रीकरण था। तब कहा जाता था..ये एबीसी की सरकार है। यानी अजय-बिल्लू और चौटाला। बापू बेटा सरकार है। किसी चौथे की सरकार में कोई कहाणी नहीं। काफी हद तक ऐसा था भी। इस के कारण पार्टी के लोगों और जनता में नाराजगी बढ़ती गई।
जेल जाकर भी नहीं टूटा हौसला
कुल मिला कर चौटाला ने ऐसा जीवन जिया जो किसी किसी को नसीब होता है। उन्होंने बंसत भी देख तो पतझड़ भी देखा। दोनों को समान रूप से जीया। ना तो बंसत में ज्यादा खिले ना पतझड़ में मुरझाए। उनकी जैसी भी सोच और सिंद्धात थे, उस से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। जेल जाने के बावजूद उनका हौसला नहीं टूटा। उनका जुनून और जज्बा गजब का था। महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने महात्मा गांधी के बारे में कहा था कि आने वाली पीढियों को ये यकीन ही नहीं होगा कि हाड़-मांस का ये आदमी कभी पृथ्वी पर चला भी होगा।
पटवारियों और थाने के मुंशियों के नाम जुबानी याद थे
चौटाला के लिए भी कहा जा सकता है कि हरियाणा के नए नवेले अफसर शायद ही कभी ये भरोसा कर पाएं कि एक चौटाला के तौर पर एक ऐसा सीएम भी था कि जिसके खौफ से वो थर्र थर्र कांपा करते थे। ये गदर नहीं था कि किसी का काम कर दिया तो ठीक, नहीं किया तो ठीक। जिस ने अफसरों को चपरासी बना कर छोड़ दिया था। जिस ने उन से उनका गुरूर छिन लिया था। मनमर्जी करने की सोच पर पहरा बिठा दिया था। जिसको बहुत से पटवारियों और थाने के मुंशियों के नाम जुबानी याद थे।
जो एसएचओ से लेकर डीजीपी तक और र्क्लक से लेकर चीफ सक्रेटरी तक की पावर अधिकार से खुद ही इस्तेमाल करता था। जिसे काम करना और काम करवाना आता था। जो राज करना जानता था। जो पैदाईशी लीडर था। जिसने अपने दम पर देवीलाल से उनकी विरासत हथियाई। जैसा कि एक दफा चौटाला ने मुझे इक इंटरव्यू में कहा था..यूं तो मैं एक निहायत ही शरीफ आदमी हूं,लेकिन किसी बदमाश का इलाज करने के लिए मुझे गुंडा बनने से गुरेज नहीं है। ईश्वर से यही कामना है कि चौटाला साहब को स्वर्ग नसीब हो। इस हालात पर कहा जा सकता है.. कोई नाराज है कि हम से कि हम कुछ लिखते नहीं ...कहां से लाएं लफ्ज जब वो मिलते नहीं ...दर्द की जुबान होती तो बता देते ...वो दर्द कैसे बताएं जो दिखते नहीं!!
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