डायरी के आज केपन्ने का यह कैसा शीर्षक है ? कल शाम को सैर पर जाते हुए अचानक यह बीज विचार दिमाग़ में कौंधा: इतना सन्नाटा क्यों हैं, भाई? दूर दूर तक कोई आवाज़ नहीं। लम्बी लम्बी, चौड़ी चौड़ी गलियाँ।
गलियों में आदमी। जवान, कुछ कम जवान भी। लड़के, लड़कियाँ। कुछ बच्चे भी, कुछ कुत्ते भी! बड़े, छोटे, काले, भूरे, भालू जैसे , शेर जैसे, यहाँ तक कि नेवले जैसे भी! बहुत सारी कारें-- अलग, अलग रंग ढंग की कारें। नीली कारें,काली कारें; लम्बी कारें, छोटू कारें। स्पोर्ट्स कारें, ट्रक भी। रुकी हुई कारें , चलती हुई कारें।
लेकिन, इन सब कारकों के बावजूद एक चीज़ कॉमन: सन्नाटा! कोई शोर नहीं, शराब के बाद वाला शराबा भी नहीं! अपने यहाँ जैसे हर जगह रेत बिखरी रहती है, वैसे ही यहाँ सब तरफ़ सन्नाटा बिखरा पड़ा था । या यह कहूँ, सन्नाटा पसरा पड़ा था। और उस सुहानी, ऊनींदी सी साँझ में हम सैर कर रहे थे लम्बी सुंदर गलियों में. विस्फ़ारित नज़रों से आस पास के नज़ारों को आँख में भरते हुए। अचानक, न जाने कहाँ से अचानक अंग्रेज़ी के महान कवि T.S . एलीयट की कविता Love song of J. Alfred Prufrock की आरम्भिक पंक्तियाँ दिमाग़ की स्क्रीन पर कौंधी:
Let us go, then, you and I,
When the evening is spread out against the sky,
Like a patient etherised upon a table;
Let us go,through certain half- deserted streets …
तभी दिमाग़ ने पलटी मारी और पूछा: इतना सन्नाटा क्यों है, भाई ?
यह प्रश्न और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब आप इण्डिया, यानी भारत से आए हों। सुबह सवेरे सबसे पहले धप्प की आवाज के साथ अख़बार का बरांडे में गिरना। फिर गली में आवारा तथा पालतू कुत्तों की चिल्ल पों। इधर मंदिरों में आरती की आवाज़ें और घंटियों की टनटनाहट, मस्जिदों में अज़ान , गुरुद्वारों में गुरुबानी का पाठ ।और इन सब की सहायता करते सच्ची मूच्ची के लाउड स्पीकर।फिर दूध वाले के मोटर साइकल का लम्बा और कर्कश हॉर्न। फिर बारी आती है सब्ज़ी वाले की: आलू ले लो,टमाटर ले लो, भिंडी ले लो…
अभी सब्ज़ी वाला गया नहीं कि कामवाली की झटपट खटपट। बच्चों का स्कूल जाने से पहले झींकना, उनकी माँ का खीझना। उनके पिता का चीख़ना।मोटर साइकल या कार के स्टार्ट होने की गुर्राहट।और सबके बाद, टीवी की खरख़राहट।
और फिर सड़क की आवाज़ें: कार, ट्रक, ट्रैक्टर, बुल डॉजर, रिक्शॉ , थ्री वीलर का शामिल बाजा। लड़ाई झगड़े, गाली - गुफ़्तार, प्यार- मुहब्बत का हाइब्रिड पॉप म्यूज़िक । गधों- घोड़ों की गुफ़्तगू ,नेताओं के भाषण, चेले-चपाटों के वाक् युद्ध।
हरि कथा की तरह भारत वर्ष में उत्पन्न हुईं -- Made in India ध्वनियों का दूर दूर तक कोई सानी नहीं। इस मामले में हमें किसी से स्पर्धा करने की आवश्यकता नहीं । यह वह क्षेत्र है जिसमें हमें प्राचीन काल से ही विश्व गुरु का दर्जा हासिल है!
और ध्वनियों के खदबदाते इस कढ़ाए से जब आप अचानक अपने आप को पाएँ एक स्थान पर जिसे साहित्यकार क़ब्रिस्तान की शांति कहते है, तो कैसा लगेगा आपको? तो ऐसा ही कुछ अनुभव हुआ मुझे।एक बार फिर T. S. Eliot की याद आयी। वह अपनी कविता Silence में इस चुप्पी को कुछ ऐसे बयान करते हैं :
Among the city streets
It is still high tide,
Yet the garrulous waves of life
Shrink and divide
..........................
You may say what you will,
At such peace I am terrified.
दिल्ली से निकल कर ज़ुरिक हवाई अड्डा और वहाँ से टरांटो। सब जगह शान्ति ही शांति! अर्रे, कान तरस गए कार का हॉर्न सुनने के लिए। आदमी की तो बात ही छोड़ दो, यहाँ के तो कुत्ते भी नहीं भौंकते। हमारे कुत्ते डिलन को ही ले लो। लगभग एक पखवाड़ा हो गया हमें यहाँ आए हुए, हमने उसे कभी भौंकते सुना ही नहीं।पता नहीं उसके मुँह में ज़ुबान है भी या नहीं! सचमुच कल मुझे हमारे अपने शुद्ध भारतीय कुत्तों लीओ और टेर्रो की बहुत याद आ रही थी। और उनकी माँ आपी की भी। उनका संकीर्तन भी,जो भोर सवेरे आरम्भ हो कर आधी रात तक विलंबित ताल पर बिना रुके चलता ही रहता था । और याद आए मुझे वे सभी सुरीले स्वर जो अपने शुद्ध शास्त्रीय संगीत से हमेशा मेरे कर्ण पटलों को झंकृत करते रहते थे।
आख़िर इस सन्नाटे का राज क्या है? सिवाय ऐम्ब्युलन्स के साइरन के, तथा पुलिस के हूटरों के कोई आवाज सुनाई क्यों नहीं पड़ती? आदमी तथा जानवरों के संसार में ध्वनियों का बहुत महत्व है। तो क्या यह मान लूँ कि सभ्य होने की अंधी सनक में इन लोगों ने अपनी प्रकृति प्रदत्त आवाज़ों को दमित कर लिया है। पर यही लोग जब दिल्ली की तंग गलियों में कारों के हॉर्न,हरद्वार के घाटों पर हर हर महादेव के जैकारे , तथा वृंदावन की कुंज गलियों में राधे राधे का उन्मत्त अभिवादन सुन कर ठगे से क्यों खड़े रह जाते हैं? अपने आप को सभ्य कहने वाले हज़ारों लाखों अंग्रेज़ किस जीवन राग की तलाश में भारत जैसे " too noisy" देश में किस "शांति "की खोज में कोलंबस की तरह आ जाते हैं? क्या ऐसा माना जा सकता है कि सन्नाटों के हंगामे से त्रस्त हो कर ये लोग आवाज़ों के हंगामों में शांति की तलाश में निकल पड़ते हों? और इसके ठीक विपरीत, हम हैं कि जीवन की चिल्ल पों से घबरा कर यहाँ आन पहुँचे है। और जब आ ही पहुँचे हैं तो पूछते हैं: इतना सन्नाटा क्यों है, भाई!
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