" मैं अपनी आइस क्रीम नहीं दूँगा," विप्लव ने मुँह फुलाते हुए कहा। हुआ यह कि वह बड़ी ही मस्ती से अपनी आइस क्रीम को चाट रहा था। उसकी दादी ने उसे छेड़ते हुआ कहा: चुन्नु, थोड़ी सी आइस क्रीम मुझे भी दे दे। चुन्नु का सीधा सपाट जवाब था: मैं अपनी आइस क्रीम नहीं दूँगा।
असल में हुआ यह कि वह अपनी माँ के इर्द गिर्द काफ़ी देर से घूम रहा था। माँ ने पूछा क्या चाहिए? ख़ुशामदी स्वर में चून्नु ने कहा "आइस क्रीम।"माँ ने टालमटोल की। लेकिन अंत में जीत चुन्नु की ही हुई। फ़्रिज का दरवाज़ा खोला गया। उसमें कई क़िस्म की आइस क्रीम के डब्बे थे। चुन्नु ने उसमें से चोको बार पसंद की और मज़े से उसे स्वाद ले ले कर चाटने लगा। उस स्वर्गिक आनंद के अद्भुत क्षण में दादी माँ ने व्यवधान पैदा कर दिया। "चुन्नु, थोड़ी सी आइस क्रीम मुझे दे दे।" उसने एक सेकंड की भी देर नहीं लगाई! " दादी माँ , मैं अपनी आइस क्रीम नहीं दूँगा।"
दादी ने कई तरीक़े से उसे फुसलाने की कोशिश की, किंतु उस पर कोई असर नहीं। पार्क में खेलने के लिए नहीं ले जाने की धमकी का भी कोई असर नहीं हुआ। टी वी का रिमोट छिपाने की गीदड़ भभकी भी बेअसर साबित हुई। नन्हा विप्लव अपनी आइस क्रीम का आनंद लेता रहा। दादी के सारे हथियार फ़ेल हो गए। दादी ने नया पैंतरा आज़माया। "अच्छा, चून्नु, अगर तुम आइस क्रीम नहीं शेयर नहीं करोगे तो हम हम इंडिया वापिस चले जाएँगे!" यह सुन कर चुन्नु थोड़ा विचलित हुआ। " No,Dadi Maa , no . Never ever. Stay here with me." " Then share your ice cream with me." " ओके , दादी माँ, मेरी आइस क्रीम ले लो। यह कहते हुए चुन्नु ने आइस क्रीम की आख़री बूँद भी चाट कर साफ़ कर दी , और लकड़ी की स्टिक को दादी की तरफ़ बढ़ा दिया।
हम सब बड़े ही मज़े से दादी - पोते के इस संवाद का आनंद ले रहे थे। पर अचानक मैं अपने बचपन की धूल भरी गलियों में पहुँच गया:
मैं भी उस समय यही पाँच छ साल का रहा हूँगा। गली में घंटी बजी। घंटी की आवाज़ सुनते ही कान खड़े हुए, मुँह में पानी आया। पता था क़ुल्फ़ी वाला आया है। पर हमारी क़िस्मत में क़ुल्फ़ी कम ही लिखी थी। फिर भी हम सब भी माँ के इर्द गिर्द चक्कर लगा रहे थे: थोड़ी सी उम्मीद थी, पर ज़्यादा तो ऐसा ही लगता था कि बात बनेगी नहीं।ये हालात सिर्फ़ मेरे नहीं थे। गली में मेरे जितने दोस्त थे सबकी माएँ मेरे जैसी ही थीं।
और बाहर क़ुल्फ़ी वाला घंटी बजा बजा कर हमें लुभा रहा था। आज लगता है कि भक्तों को भी मंदिर की घंटी इतनी मीठी नहीं लगती होगी जितनी क़ुल्फ़ी वाले की घंटी हमें लगती थी। लम्बा और काला सा वह क़ुल्फ़ी वाला -- मुझे अब तक याद है उसका नाम भूरे था -- बड़ी मीठी आवाज़ में हमारे बाल मन को लुभाता था: बर्फ़ से ठंडी क़ुल्फ़ी ले लो। मलाई वाली क़ुल्फ़ी ले लो। मेवे वाली क़ुल्फ़ी खा लो। सिर्फ़ एक पैसा,एक पैसा, एक पैसा!
और वह एक पैसा ही हमें नहीं मिलता था। माँ दस बहाने बनाती। अरे कल ही तो खिलायी थी; रोज़ रोज़ कहाँ से पैसे लाऊँ। हम तो जानते थे, जानती वह भी थी कि वह कल दस दिन, या हो सकता है, पंद्रह दिन पहले आया था। पहले वह भूरे को धमकाती: करमजले, रोज़ आ कर दरवाज़े पर खड़ा हो जाता है। रोज़ कहाँ से लाऊँ पैसे! फिर हमारा नम्बर लगता। इस मामले में हम कभी दादी के पल्लू का सहारा लेते , तो कभी ताई का। कभी शरण मिल जाती, कभी वहाँ से भी दाँत खट्टे होते। क़ुल्फ़ी की मिठास, क़ुल्फ़ी की ठंडक, क़ुल्फ़ी का स्वाद सब हमारी कल्पना में होता, जीभ पर नहीं। पल्ले नहीं दाने, अम्माँ चली भुनाने! आज के बच्चे शायद इस मुहावरे को न समझें। स्थिति शायद कुछ ऐसी थी की जेब में एक रूपैया न हो और खड़े हों मक्डॉनल्ड या पिज़्ज़ा हट के सामने! और सोच रहे हों की चीज़ टोप्पिंग्स से भरे पिज़्ज़ा की स्वादिष्ट प्लेट रखी है हमारे सामने! ख़ैर,कभी भूरे की "मलाईदार,बर्फ़ से ठंडी, मेवे वाली क़ुल्फ़ी हमारे ललचाए मुँह में घुल जाती, पर ज़्यादातर मुँह में बस पानी ही आता रहता।
कवि ने ठीक ही कहा है : कभी किसी को मुक्कमल जहाँ नहीं मिलता
कहीं जमीं तो कहीं आस्माँ नहीं मिलता माँ टालती रहती। कभी पैसे न होने का बहाना बनाती, तो कभी कहती की अच्छा अगली बार दिलाऊँगी। हर बार कोई न कोई नया बहाना। हमारी हालत कमोबेश यूनीयन के उन मज़दूरों जैसी होती जिन्हें मालिक बोनस के नाम पर सिर्फ़ लारे लप्पे ही देते रहते है।
दादी और पोते के बीच में प्यार भरी तकरार जारी थी। दादी अपने हिस्से की आइस क्रीम माँग रही थी, और पोता आँखों में शरारत भरे, और होठों पर मीठी सी मुस्कराहट लिए दादी को चोको आइस क्रीम की डंडी दिखा कर कह रहा था : दादी माँ, आधी आधी कर लेते हैं। आधी मैंने खा ली , अब आधी आप खा लो!
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