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Toronto Diary- टिकट चाहिए ?

Toronto Diary- टिकट चाहिए ?

चुनावी सीज़न तो अब ख़त्म हुआ। अब किसका टिकट देने की बात कर रहा हूँ मैं? राजधानी की, या गरीबरथ की? या फिर वह कौन सी नई नवेली रेल चली है -- क्या नाम है उसका? हाँ, याद आया, वन्दे भारत! -डॉ सतीश आर्य की कलम से।

प्रतीकात्मक तस्वीर

चुनावी सीज़न तो अब ख़त्म हुआ। अब किसका टिकट देने की बात कर रहा हूँ मैं? राजधानी की, या गरीबरथ की? या फिर वह कौन सी नई नवेली रेल चली है -- क्या नाम है उसका? हाँ, याद आया, वन्दे भारत! सुना है अमीर आदमी ही बैठ सकते है उसमें। हमारे जैसे तो सिर्फ़ झाँक सकते हैं। शायद यह भी ना कर पाएँ क्योंकि वहाँ तक पहुँचने के लिए भी प्लैट्फ़ॉर्म टिकट लेना पड़ता है!         

अरे, मैं तो टरांटो में टिकट लेने की बात कर रहा हूँ। आप चाहे या न चाहे, टिकट तो आप को मिल ही जाएगा। आज नहीं तो कल। कल नहीं तो परसों। पर मिलेगा ज़रूर। ब्रह्म वाक्य मान लो इसे। वो क्या कहते है अंग्रेज़ी में- as sure as death. टोरोंटो में आप कार चलाओ -- कार छोटी हो या बड़ी,होंडा हो या पोर्शा, नीसॉन हो  या लिमौसीन, क्या फ़र्क़ पड़ता है। कार को छोड़ो, आप ट्रक भी चलाते  हैं तो भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। टिकट तो मिलनी ही है: टिकट आपकी नियति है।  

टिकट - यानि चालान। आप गाड़ी चलाते हों टरांटो में, और न हो आपका चालान, यह हो नहीं सकता। असम्भव है यह तो। ट्रैफ़िक के नियमों का इतना गुच्छा है कि दिल्ली में चाँदनी चौक की तंग गलियों पर लटकते बिजली की तारों का जाल  भी उनके आगे गौण लगता है!

कल्पना कर सकते है आप कि अपनी गली में अपने घर के सामने अपनी ही गाड़ी को खड़ी करने के लिए पर्मिट लेना पड़ेगा आपको! 300 डॉलर लगेंगे आपको छः महीने के पर्मिट लेने के लिए! और अगर नहीं लिया पर्मिट तो? तो फिर लो टिकट! इसी तरह किस सड़क पर गाड़ी खड़ी हो सकती, किस पर नहीं इसके भी नियम हैं। नियम तोड़ा और मिला टिकट। तीन घंटे गाड़ी खड़ी करने का पर्मिट, उसके बाद पर्मिट रीन्यू कराओ, बहुत ज़रूरी है। नहीं कराओ तो टिकट लेने के लिए तैयार रहो।    

ध्यान रखना पड़ेगा कि किस सड़क पर कितनी स्पीड रखनी है। कही तीस , कहीं चालीस , कहीं पचास तो कहीं सौ भी। लिमिट से ज़्यादा चलो तो भी चालान, और कम चलो तो भी चालान। बीमे की तारीख़ ऊपर हो गयी तो भी...और न जा किस विध, किस रूप में मिल जाएँ भगवान।

चलती गाड़ी से हाथ बाहर निकाला तो टिकट, सिर बाहर निकाला तो टिकट। छोटा बच्चा गोदी में लेकर बैठ गये तो टिकट। कुत्ते को सीट पर नहीं बिठाया तो टिकट। मौड पर गाड़ी धीरे नहीं की तो टिकट। लाल बत्ती पर नहीं रुके तो टिकट।       

और यदि कोई स्कूल बस किसी बच्चे को ड्राप करने के लिए खड़ी है और उसकी लाल बत्ती जल रही तो आप कदापि उसे ओवर टेक करने की गलती नहीं कर सकते। यह बड़ा अपराध है और इसकी टिकट भी बड़ी है। फायर हाइड्रैंट से तीन मीटर से कम दूरी पर आपकी कर खड़ी है तो भी टिकट लगेगी ही। टिकट न हो गई महाभारत हो गई!     

और टिकट मिलने के तरीक़े भी अजब  ग़ज़ब। टिकट हाथ से लिखा हुआ चालान हो सकता है,डाक से भी भेजा जा सकता है और ई मेल से भी। आपकी कार की विंडस्क्रीन पर भी चस्पाँ किया जा सकता है होशियार रहना पड़ेगा। ख़बरदार रहना पड़ेगा। जागते रहना पड़ेगा सदैव जागृत भव। टिकट मिलते ही फाइन भरना भी पड़ेगा । वरना फिर वही अदालत के चक्कर!         

और कनाडा की बात करते करते याद आ ही गयी अपनी भारत भूमि की। जहाँ चाहे गाड़ी खड़ी करो, जैसे मर्ज़ी चलाओ, हॉर्न बजाओ,न बजाओ। ओवरटेक करो ,कैसे  भी करो -- दाएँ से करो या बाएँ से -- बस कर लो। ख़रीदारी करनी है? करो न? किसने मना किया? 'गाड़ी दुकान के आगे लगा  दी?' 'हाँ, लगा दी? तेरे बाप की जगह है क्या?' ' अरे, मैं कहाँ से निकलूँ?' ' कहीं से निकल, मुझे क्या पता!

कुछ महीने पहले अपने शहर की एक घटना याद आ गयी। भीड़ भाड़ वाली टू वे सड़क। कार, स्कूटर, साइकल, पैदल, घोड़े, खच्चर सब अपनी अपनी गति से चलायमान। अचानक एक खुली जीप में सवार ने ब्रेक मार कर जीप को सड़क के  बीचों बीच रोक दिया।तभी ग़लत दिशा से आ कर एक नौजवान ने अपना मोटर साइकल जीप के बराबर ला कर खड़ा कर दिया और जीप वाले अपने दोस्त से लगा गप्पें लड़ाने।सारा ट्रैफ़िक जाम। पीछे हॉर्न बज रहें हैं पर दोनों मित्र गपशप में मशगूल। एक पुलिस वाला आया, देखा उन्हें और चुपचाप सरक लिया। चौधर का भी कुछ रुतबा होता है कि नहीं? समरथ को नहीं दोष गोसाईं! टिकट? चालान? अरे छोड़ो भी। यहाँ का दस्तूर नहीं है यह सब। हमें सिर्फ़ इंद्रियों को अनुशासित करने का पाठ पढ़ाया गया है। बाक़ी सब अनुशासन बेमानी है हमारे लिए। वैसे भी अब हम विश्व गुरु बनने की राह पर तेज़ी से अग्रसर हैं। इस चोटी पर पहुँचने के लिये राह में पड़े सामाजिक तहज़ीब जैसे छोटे मोटे रोड़ों की क्या परवाह करनी! और फिर यहाँ कौन सी टिकट लगनी है। 

और फिर यदि दुर्योगवश ऐसी नौबत आ ही जाए तो  अपना असली या नक़ली तहसीलदार चाचा , इन्स्पेक्टर मामा, अपना नहीं,किसी दोस्त या पड़ोस का ही सही, क्या काम आएगा? जेब से मोबाइल फ़ोन निकाला, मिलाया और  टिकट देने वाले के कान को भिड़ा दिया , कहा: ज़रा सुनना। और यह दाव भी नहीं चला तो अपने गांधी बाबा का नीला नोट तो है ही।       

यहाँ, इस मुल्क में सब कुछ उलटा है। जाहिल हैं ये लोग। ये कोई बात सुनते ही नहीं।सुना है,इनके  चाचा, मामा होते ही नहीं। इनको समझाओ तो ये कुछ समझते ही नहीं। बस, टिकट के रेट दोगुने, चोगुने करते चले जाते हैं। आप उनको समझाने की कोशिश करो तो ज़रा। पहाड़ा सा शुरू हो जाता है: 30 दूनी 60 दूनी 120 ! सब डालरों में। ज़्यादा चूँ चपड़ की तो ड्राइविंग लाइसेन्स भी ज़ब्त। इंश्योरेंस भी महँगी। अरे यह वह जगह है जहाँ आपका कुत्ता भी अगर पब्लिक प्लेस पर पोट्टि कर दे तो 365 डॉलर का टिकट कट जाता है!

शायद इसीलिये महाकवि मिल्टन ने कहा है: 

                           It is better  to rule in hell, than to serve in heaven.   

यदि  हिंदी में कहें तो इसका सीधा सा अर्थ होगा : स्वर्ग में चाकरी  करने से अच्छा होगा कि हम नरक में राज करें। बाकी आप  स्वयं समझदार हैं। वैसे एक  और महाकवि  भी हुए हैं। उनका नाम है गोस्वामी तुलसीदास। उन्होंने  भी कुछ कहा है: भय बिन होत न प्रीत।

तो, सोचें ज़रा : टिकट मिलनी चाहिए या नहीं?

   

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