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Toronto Diary- ब्रैम्पटन में छोले भटूरे 

Toronto Diary- ब्रैम्पटन में छोले भटूरे 

-सतीश आर्य

प्रतीकात्मक तस्वीर

कल ब्रैम्पटन में जाना हुआ। वहाँ मेरी भतीजी मोना अपने पति सुजीत तथा अपनी प्यारी सी बेटी आन्या के साथ रहती है। ब्रैम्पटन टरांटो का एक सैटेलाइट यानि उपनगर है। यह ग्रेटर टरांटो का उसी प्रकार एक हिस्सा है जैसे ग्रेटर नॉएडा, गुरुग्राम, फ़रीदाबाद आदि दिल्ली का हिस्सा हैं। ग्रेटर टरांटो कई सारे उपनगरों का एक समूह है जिसमें मिस्सिसौग़ा, मार्खम,वान,सकार्बोरो, इटिबीकोतथ नोर्थ यॉर्क आदि शहर आते हैं। 

तो, हम चार बजे के लगभग दो अलग अलग कारों में चले। अंशुल हमसे एक घंटा पहले विप्लव के साथ गई क्योंकि उसे ब्रैम्पटन के इंडीयनस्टोर से कुछ सामान लेना था जो हम भारतीयों के लिए सिर्फ़ वहाँ ही उपलब्ध होता है। एक और भी कारण था। उसे हमारे पालतू कुत्ते डिलन की भी चिंता थी। उसे अकेला नहीं छोड़ा जा सकता था। इसलिए, चाहे देर से ही सही, उसे तो वापस आना ही पड़ना था। भानु, उसकी माँ, तथा मैं दूसरी कार में में गए; हमें रात को मोना के पास ही रुकना था। मोना का जन्मदिन भी था ,सो उसके लिए एक स्वादिष्ट केक तथा एक गिफ़्ट भी हमने कार में रख ली। 

आमतौर पर ब्रैम्पटन पहुँचने में 35- 40 मिनट लगते हैं। ट्रैफ़िक ज़्यादा हो तो आधा घंटा और लगा लो। जैसे जैसे हम ब्रैम्पटन के नज़दीक पहुँचने लगे, दुकानों , या यहाँ की भाषा में कहें तो, शो रूम्ज़ पर लिखी इबारतों में परिवर्तन नज़र आने लगा। अब सोंधी, सिद्धू, चड्ढा , और कहीं कहीं, सांगवान और राठी जैसे नाम भी नज़र आने लगे। एक नन्दा बैंक्वेट हॉल भी दिखा। 

ब्रैम्पटन को एक मायने में हम मिनी इंडिया भी कह सकते हैं। यहाँ आमतौर पर भारतीय मूल के लोगों का ही बसावडा है। ज़्यादातर आबादी सिखों की है। हिंदुओं को संख्या भी काफ़ी बड़ी है। बहुत वर्ष पहले कुछ सिख यहाँ आए होंगे। और फिर जैसा कि अक्सर होता है, फिर तो लाइन ही लग गयी। काम की बहुतायत, वीज़ा की आसान शर्तें , सर्द मौसम की सारी कठिनाइयों पर हावी रही होंगी। मानव जिजीविषा भी अद्भुत है। सारी कठिनाइयों को हरा कर ये लोग न केवल अपने आपको स्थापित कर सके, अपितु इन्होंने सफलता के नए आयाम क़ायम कर दिए। अब तो ब्रैम्पटन पंजाबियों और हरियाणा वासियों से भरा पड़ा है। कोई नौकरी के लिए आता है, तो कोई पढ़ाई के लिए। और जब आ ही गए तो जाना क्यों? कुछ समय के बाद PR जाती है,और फिर नागरिकता। ज़्यादातर लोग नौकरीपेशा है, या फिर सर्विस सेक्टर में।

एक क़ाबिले ग़ौर बात यह भी है कि यद्यपि इनमे से ज़्यादातर लोग अपने गाँव तथा ज़मीने पीछे छोड़ आए हैं, पर वह अपनी जात, अपना गोत्र, अपना गाँव अपनी गठडियों में अपने साथ बाँध कर लाएँ हैं। अपने पूर्वाग्रह, अपने अंधविश्वास भी। यहाँ के पंजाबी अख़बारों में तंत्र मंत्र के लिए बाबाओं के विज्ञापन आम नज़र आ सकते हैं। पंजाब - हरियाणा की राजनीति पर चर्चा कनाडा की राजनीति से कहीं अधिक है! गुरुद्वारों और मंदिरों में भी राजनीति का प्रभाव देखा जा सकता है। अपनो के प्रति लगाव और गोरों के प्रति नापसंदगी का भाव भाषा तथा भाव भंगिमा से न चाहते हुए भी नज़र आ ही जाता है। 

ख़ैर, हम मोना के घर पहुँचे। अंशुल और विप्लव वहाँ पहले ही पहुँचे हुए थे। चरण स्पर्श , गले मिलना आदि सभी परम्परागत रूप से हुआ। नर्म गद्देदार सोफ़ों पर पसर कर गर्मागर्म शुद्ध भारतीय चाय का आनंद लिया गया। आन्या और विप्लव अपनी ही दुनिया में व्यस्त थे, मस्त थे। घर में सुंदर तोतों का जोड़ा था। ब्राइट पीले रंग का मैंगो तथा हल्के नीले रंग की बैर्री। वे दोनों उनके साथ उछल कूद कर रहे थे।

केक के समय बच्चे और बड़ों का संसार एक हो गया: तालियाँ बजी, ग़ुब्बारे फोड़े गए, ख़ूब हँसी मज़ाक़ हुए। ख़ूब तस्वीरें खींची गयीं। उसके बाद हुआ एक शानदार डिनर। दोनों बच्चों ने मैंगो और बर्री के साथ ख़ूब मज़े किए। रात के साढ़े दस बज चुके थे। अंशुल को वापसी की जल्दी थी। बाई बाई करके वह निकल गयी। हम लोग देर तक गप्प मारते रहे। 

रात को देर से सोये और सुबह बहुत ही आराम से उठे। सोचा कि किसी देसी रेस्टौरंट में चला जाए नाश्ता करने के लिए। सुजीत और मोना कई देर तक डिस्कस करते रहे कि कहाँ जाना चाहिए। यहाँ बीसियों रेस्टौरंट हैं इंडीयन , विशेष तौर पर पंजाबी। फ़ैसला हुआ आख़िर कि ' टेस्ट ओफ़ पंजाब' में जा कर व्रत तोड़ा जाए। यहाँ के होटलों की बात ही अलग है। मुरथल के ढाबों में जो देसी घी के पराँठे खाए थे उनकी याद आ गयी। सब क़िस्म की देसी डिशेज़ उपलब्ध थीं यहा।चावल , राजमा, कढ़ी, रायता, आलू गोभी, मटर पनीर। आप बस पूछो। सब कुछ हाज़िर था यहाँ। और हलवा, खीर, लड्डू, जलेबी, रसमलाई। क़ुल्फ़ी भी! मेन्यू को देखते ही वराइयटी का अन्दाज़ा हो गया।

यहाँ सबकी अपनी अपनी ढपली, अपना अपना राग था। कई देर तक जिद्दो ज़हद चली।भानु दही के साथ देसी घी में तर पराँठे खाना चाहता था।मेरी पत्नी की इच्छा मसाला डोसा खाने की थी। हमारे मेज़बान शायद कुछ और खाना चाहते थे पर शिष्टाचारवश हमारी पसंद को ही अपनी पसंद बता रहे थे।अंत में -- जीवन में शायद पहली बार-- मेरी चली! छोले भटूरे! हाँ, छोले भटूरे ही! मेरे बेटे ने प्रोटेस्ट दर्ज कराई ; पत्नी ने होंठ बिचकाए। किंतु सुजीत और मोना का वोट मुझे मिल गया। उन्होंने कहा कि सचमुच ही छोले भटूरे की क्वालिटी यहाँ बहुत ही अच्छी है। तो, छोले भटूरे का ऑर्डर दिया गया। हाँ, एक डिसेंटिंग वोट तो था ही। यह अलग बात है कि उसमें वीटो पावर नहीं थी।उनके लिए तो मसाला डोसा ही आया। 

मसाला डोसा पर तो मैं टिप्पणी करने की स्थिति में नहीं हूँ, पर छोले भटूरे की ख़ुशबू मस्त करने वाली थी। अहा, क्या रंग रूप था छोलों का! क्या ख़ुशबू थी !! और क्या फूल कर कुप्पा हुए गरमा गरम भटूरे।सीधे कढ़ाई से उतर कर लहराते हुए मेरी प्लेट में अवतरित हो रहे थे । नथुनों में ख़ुशबू उड़ उड़ कर आ रही थी , मुँह में पानी की रस धार बह रही थी।एक प्याले में प्याज़, हरी मिर्च और कटे हुए निम्बू की फाड़ियाँ भी थीं। और साथ में था आम का अचार। सुजीत ने इस स्वाद को दोगुना कर दिया जब दही की लस्सी के लिए बोल दिया।बड़े बड़े अमृतसरी गिलासों में आयी लस्सी। ऊपर मलाई की मोटी परत। छोले भटूरे के साथ लस्सी की क्या ग़ज़ब की जुगलबंदी हुई! सोने पर सुहागा। पेट तो तृप्त हुआ ही, सबकी मुस्कान बता रही थी कि आत्मा भी तृप्त हो गयी थी। 

सुजीत ने कहा : कुछ मीठा हो जाए? समवेत सुर में न में जवाब आया। उठ कर चले, चल कर रुके। सामने पान बुला रहे थे। ब्रैम्पटन है तो मुमकिन है! लेडीज़ ने मीठे पान लिए और मैंने कुछ लखनवी अन्दाज़ से बनारसी पान का बीड़ा मुँह में दबाया। इस प्रकार छोले भटूरे की कथा की इति श्री हुई!

हाँ, एक बात तो बतानी रह ही गयी। घंटे दो घंटे बाद छोले भटूरों ने पेट में उलट पलट होना शुरू कर दिया। उनको शांत करने के लिए डाइजीन की गोली खानी पड़ी। शायद मेरे जैसे लोगों के लिए ही बना है यह नीति वाक्य: अति सर्वत्र वर्जते!

 

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