राज्यसभा सांसद कृष्ण लाल पंवार ने केंद्र सरकार से हरियाणा के प्रसिद्ध सूर्य कवि पंडित लख्मीचंद को भारत रत्न देने की मांग की है। उन्होंने शुक्रवार को राज्यसभा में यह मांग करते हुए कहा कि हरियाणवी साहित्य और लोक कला की दुनिया में पंडित लख्मीचंद एक प्रतिष्ठित व्यक्तित्व हैं। हरियाणा के "सूर्य-कवि" और "हरियाणा के शेक्सपियर" के रूप में जाने जाने वाले पंडित लख्मीचंद ने उत्तर भारत की सांस्कृतिक और साहित्यिक विरासत पर एक अमिट छाप छोड़ी है, खासकर हरियाणवी रागनी और गीत में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
हरियाणा के लोकाचार और परंपराओं से गहराई से जुड़ी हुई हैं रचनाएं
कृष्ण लाल पंवार ने कहा कि पंडित लख्मीचंद की रचनाएं हरियाणा के लोकाचार और परंपराओं से गहराई से जुड़ी हुई हैं। रागिनी की कला में उनकी महारत लोक कविता का एक पारंपरिक रूप ने उन्हें भारतीय साहित्य के इतिहास में एक सम्मानित स्थान दिलाया है। उनकी रचनाओं की काव्य प्रतिभा और सांस्कृतिक गहराई ने न केवल हरियाणवी साहित्य को समृद्ध किया है, बल्कि पीढ़ियों तक इसके संरक्षण और प्रसार को भी सुनिश्चित किया है।
उन्होंने राज्यसभा के सभापति के समक्ष अनुरोध किया कि गृह मंत्री भारत सरकार के माध्यम से पंडित लख्मीचंद को भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारत रत्न से सम्मानित करने के गहन महत्व से अवगत कराया जाए। कृष्ण लाल पंवार ने कहा कि इस तरह की मान्यता न केवल उनके अद्वितीय योगदान के लिए एक उपयुक्त श्रद्धांजलि होगी, बल्कि भावी पीढ़ियों को हमारी भूमि की समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं को संजोने और बनाए रखने के लिए प्रेरित करेगी। यह प्रत्येक हरियाणा वासी के लिए भी गर्व की बात होगी।
बचपन से थी गाने में रुचि
पंडित लख्मीचंद का जन्म 1903 में सोनीपत जिले के जाटी कलां गांव में एक साधारण किसान गौड़ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके दो भाई व तीन बहनें थीं। वे अपने पिता की दूसरी संतान थे। बाल्यावस्था में उन्हें पशु चराने के लिए खेतों में भेजा जाने लगा। उनको गाने में रुचि थी। वह हमेशा कुछ न कुछ गुनगुनाते रहते।
सात-आठ वर्ष की आयु में ही उन्होंने अपनी मधुर व सुरीली आवाज से लोगों का मन मोह लिया। ग्रामीण उनसे नित गीत व भजन सुनाने की आग्रह करने लगे। ग्रामीणों की अपार प्रशंसा से उत्साहित बालक लख्मीचंद ने अनेक गीत व भजन कंठस्थ कर लिए और गायकी के मार्ग पर अपने कदम तेजी से बढ़ा दिए।
लखमी चन्द के हृदय पटल पर पंडित मान सिंह का जादू
इसी दौरान उनके गांव जाटी कलां के विवाह समारोह में बसौदी निवासी पंडित मानसिंह भजन-रागनी का कार्यक्रम करने के लिए पहुंचे। वे अंधे थे। उन्होंने कई दिन तक गांव में भजन व रागनियां सुनाईं। बालक लख्मीचंद भी उनके भजन सुनने के लिए प्रतिदिन जाते थे। लख्मीचंद के हृदय पटल पर पंडित मान सिंह का ऐसा जादू किया कि उन्होंने सीधे मान सिंह को अपना गुरु बनाने का निवेदन कर डाला।
एक बालक के गायकी के प्रति इस अपार लगाव से प्रभावित होकर पंडित मान सिंह ने उनके पिता पंडित उदमी राम से इस बारे में बात की और उनकी सहमति के बाद उन्होंने बालक लख्मीचंद को अपना शिष्य बनाना स्वीकार कर लिया। इसके बाद बालक लख्मीचंद अपने गुरु से ज्ञान लेने में तल्लीन हो गए और असीम लगन व कठिन परिश्रम से वे निखरते चले गए।
लोग हो गए उनकी गायन प्रतिभा और सुरीली आवाज के कायल
कुछ ही समय में लोग उनकी गायन प्रतिभा और सुरीली आवाज के कायल हो गए। अब उनकी रूचि ‘साँग’ सीखने की हो गई। ‘साँग’ की कला सीखने के लिए लख्मीचंद कुण्डली निवासी सोहन लाल के बेड़े में शामिल हो गए। अडिग लगन व मेहनत के बल पर पाँच साल में ही उन्होंने ‘साँग’ की बारीकियां सीख लीं। उनके अभिनय एवं नाच का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगा। उनके अंग-अंग का मटकना, मनोहारी अदाएं, हाथों की मुद्राएं, कमर की लचक और गजब की फूर्ती का जादू हर किसी को मदहोश कर डालता था। जब वे नारी पात्र अभिनीत करते थे तो देखने वाले बस देखते रह जाते थे।
संकीर्ण मानसिकता के लोगों ने धोखे से लखमी चन्द के खाने में मिला दिया था पारा
इसी बीच सोहन लाल ने लख्मीचंद के गुरु पंडित मानसिंह के बारे में कुछ असभ्य बात मंच से कह दी तो लख्मीचंद को अत्यन्त बुरा लगा। उन्होंने सोहन लाल का बेड़ा छोड़ने का ऐलान कर दिया। इससे भन्नाए कुछ संकीर्ण मानसिकता के लोगों ने धोखे से लख्मीचंद के खाने में पारा मिला दिया, जिससे लखमी चन्द का स्वास्थ्य खराब हो गया। उनकी आवाज को भी भारी क्षति पहुंची, लेकिन सतत साधना के जरिए लख्मीचंद ने कुछ समय बाद पुनः अपनी आवाज में सुधार किया। इसके बाद उन्होंने स्वयं अपना अलग बेड़ा तैयार करने का मन बना लिया।
‘साँग’ कला को नई ऐतिहासिक बुलंदियों पर पहुंचाया
पंडित लख्मीचंद ने अपने गुरु भाई जैलाल नदीपुर माजरा वाले के साथ मिलकर मात्र 18-19 वर्ष की उम्र में ही अलग बेड़ा बनाया और ‘साँग’ मंचित करने लगे। अपनी बहुमुखी प्रतिभा और महान आशा के बल पर उन्होंने एक वर्ष के अन्दर ही लोगों के बीच पुनः अपनी पकड़ बना ली।
उनकी लोकप्रियता को देखते हुए बड़े-बड़े धुरंधर कलाकार उनके बेड़े में शामिल होने लगे और पंडित लख्मीचंद देखते ही देखते ‘साँग-सम्राट’ के रूप में विख्यात होते चले गए। ‘सांग’ के दौरान साज-आवाज-अन्दाज आदि किसी भी मामले में किसी तरह की ढील अथवा लापरवाही उन्हें बिल्कुल भी पसन्द नहीं थी। उन्होंने अपने बेड़े में एक से बढ़कर एक कलाकार रखे और ‘साँग’ कला को नई ऐतिहासिक बुलंदियों पर पहुंचाया।
लगभग दो दर्जन ‘सांगों’ की रचना की
पंडित लख्मीचंद ने अपने जीवन में लगभग दो दर्जन ‘सांगों’ की रचना की, जिनमें ‘नल-दमयन्ती’, ‘हरीशचन्द्र’, ‘ताराचन्द’, ‘चापसिंह’, ‘नौटंकी’, ‘सत्यवान-सावित्री’, ‘चीरपर्व’, ‘पूर्ण भगत’, ‘मेनका-शकुन्तला’, ‘मीरा बाई’, ‘शाही लकड़हारा’, ‘कीचक पर्व’, ‘पदमावत’, ‘गोपीचन्द’, ‘हीरामल जमाल’, ‘चन्द्र किरण’ ‘बीजा सौरठ’, ‘हीर-रांझा’, ‘ज्यानी चोर’, ‘सुलतान-निहालदे’, ‘राजाभोज-शरणदे’, ‘भूप पुरंजन’ आदि शामिल हैं। इनके अलावा उन्होंने दर्जनों भजनों की भी रचना की।
आध्यात्मिक ज्ञान को भी अपनी रचनाओं में पिरोना शुरू कर दिया
प्रारम्भ में लख्मीचंद श्रृंगार-रस की रचनाओं पर जोर देते थे लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान को भी अपनी रचनाओं में पिरोना शुरू कर दिया। वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों और अन्य धार्मिक ग्रन्थों का ज्ञान लेने के लिए उन्होंने दो विद्वान शास्त्रियों को अपने साथ जोड़ लिया, जिनमें से एक रोहतक जिले के गांव टिटौली निवासी पंडित टीकाराम शास्त्री थे। वे आध्यात्मिक ज्ञान में ऐसे डूबे की संत प्रवृत्ति के होते चले गए और जीवन के आखिरी दशक में वैरागी-सा जीवन जीने लगे। दान एवं पुण्य कार्यों में उन्होंने बढ़ चढ़कर योगदान दिया।
उनकी विरासत को सहेजने व आगे बढ़ाने में लगे हैं पुत्र-पौत्र
लंबी बीमारी के उपरान्त 17 जुलाई, 1945 की सुबह उनका देहांत हो गया। वे अपनी अथाह एवं अनमोल विरासत छोड़कर गए हैं। उनकी इस विरासत को सहेजने व आगे बढ़ाने के लिए उनके सुपुत्र पंडित तुलेराम ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई। इसके बाद तीसरी पीढ़ी में उनके पौत्र पंडित विष्णु दत्त कौशिक भी अपने दादा की विरासत के संरक्षण एवं संवर्धन में अति प्रशंसनीय भूमिका अदा कर रहे हैं।
वे अपने दादा द्वारा बनाए गए ‘ताराचन्द’ के तीन भाग, ‘शाही लकड़हारा’ के दो भाग, ‘पूर्णमल’, ‘सरदार चापसिंह’, ‘नौटंकी’, ‘मीराबाई’, ‘राजा नल’, ‘सत्यवान-सावित्री’, महाभारत का किस्सा ‘कीचक द्रोपदी’, ‘पद्मावत’ आदि दर्जन भर साँगों का हजारों बार मंचन कर चुके हैं और आज भी लोगों की भारी भीड़ उन्हें सुनने के लिए दौड़ी चली आती है।
रचनाओं का भंडार विशाल
पंडित लख्मीचंद की रचनाओं का भंडार विशाल है। उनकी रचनाओं पर अनेक विद्वानों ने बड़े-बड़े शोध किए हैं। उनकी रचनाएं पूरे देश व समाज को एक नई राह दिखाने वाली और भारतीय संस्कृति व संस्कारों का संवर्धन करने वाली हैं। उनके द्वारा रचित कुछ प्रमुख सांग हैं : नल-दमयंती, मीराबाई, सत्यवान सावित्री, सेठ तारा चंद, पूरन भगत व शाही लकड़हारा आदि। उनके सुपुत्र पंडित तुलेराम ने उनकी परंपरा को आगे बढ़ाया। आजकल उनके पौत्र विष्णु उनकी इस परंपरा का हरियाणा, राजस्थान व उत्तर प्रदेश के दूरदराज के गांवों तक प्रसार करने हेतु प्रयासरत हैं।
पंडित लख्मीचंद की रचनाओं का शब्द विन्यास, तुकबन्दी, छन्द, मुहावरे, रस, समास, अलंकार आदि का प्रयोग बेहद अनूठा एवं अनुपम रहा। कुछ बानगियां देखिए:
- ‘तेरे रूप की चमक इसी जाणूं, तेज तेज जंग की का’ (नौटंकी)
- ‘घटा हटा झट पट घूंघट, कर मत घोर अंधेरे’ (कीचक पर्व)
- ‘सीप में मोती पत्थर में हीरा तू हीरे बीच कणी सै’ (पदमावत)
- ‘रूप के निशाने दोनूं जाणूं गोली चालै रण में’ (नल-दमयन्ती)
- ‘बदन पै था गहणा एक धड़ी, रूप जाणूं, खिलरी फूलझड़ी, 'लवै भिड़ी ना दूर खड़ी वा दूर तै हूर घूर कै खागी।’ (पदमावत)
उन्होंने अपनी रचनाओं में धर्मशास्त्रों के अमूल्य ज्ञान को बड़े सहज, सरस व सरल रूप में पिरोया है। देखिए:
- ‘बीते बिना टलै नहीं समय और कर्म के भोग।’
- ‘राम बराबर समझणा चाहिए जो औरां के दुख बांटै।’
- ‘पाप नष्ट हों उन बन्द्यां के जो गंगा में नहाया करैं।’
- ‘लखमीचन्द भगवान समझ रख ध्यान गुरू चरनन में।’
- ‘लोभ नीच दुनिया में नाड़ चाहे जिसकी तोड़ दे।’
- ‘वै घर जांगे उत नपूत जड़ै दूध ना दही।’
- ‘आए गए अतिथि की खातिर दु:ख सुख सहणा चाहिए।’
- ‘क्यों ना पेड़ धर्म का सींचै।’
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