प्रह्लाद आचार्य कोई जादूगर नहीं हैं, फिर भी उन्हें जादू आता है। कभी वह हाथों से कोई जानवर निकालते हैं, तो कभी इंसान। कभी कोई परिंदा फड़फड़ाता हुआ उनकी हथेलियों के बीच प्रकट हो जाता है, तो कभी कोई बूढ़ा पेड़ कहानी सुनाने लगता है अपनी।
प्रह्लाद यह सब कर पाते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि रोशनी का इस्तेमाल कैसे करना है। वह एक शैडो आर्टिस्ट हैं। शैडो आर्टिस्ट मतलब परछाइयों से खेलने और उससे खेल दिखाने वाला कलाकार। वह कभी सामने नहीं आता। उसकी कला खिलती ही पर्दे के पीछे रहकर है। सामने आता है बस उसका काम, जिसे देखकर सामने बैठे दर्शक खिलखिला उठते हैं।
परछाइयां हमारे साथ हर दिन खेलती
परछाई होती है काले रंग की, लेकिन जब वह पर्दे पर उतरती है, तो उसमें कल्पनाओं के रंग अपने आप भरते चले जाते हैं। कलाकार की अंगुलियों से पैदा हुई समंदर की लहर या उगते सूरज से जगमगा रहे आसमान के बारे में दर्शकों को बताने की जरूरत नहीं कि उसका रंग क्या होगा। वह बात अनकही, लेकिन समझी-बुझी है। ऐसा ही खेल तो परछाइयां हमारे साथ हर दिन खेलती हैं। बिना कहे वे हमें तरह-तरह की चीजें दिखाती हैं, और इसमें भी वही आनंद है जो शैडो प्ले में।
परछाई हवा की तरह.. जो मुट्ठी में कैद नहीं होती
परछाई हवा की तरह है, जो हथेलियों पर आकर बैठ जाती है, लेकिन मुट्ठी में कैद नहीं होती। यह बादलों की तरह है, जो आपको बिल्कुल वही दिखा सकती है जो उस समय आप देखना चाहते हैं। परछाइयों से खेलना पजल गेम में उलझने जैसा है। आप बस सोचिए कि आपको देखना क्या है और रोशनी से मिलकर परछाई वह चीज आपके सामने पेश कर देगी। खाली जगह में गौर कीजिए कि पेड़ों की परछाई क्या बना रही है, कमरे में पड़ा बेड, मेज पर रखा सामान, कुर्सियां और डोरी पर उड़ते कपड़े किस तरह का करतब रच रहे हैं।
कहा जाता है कि परछाई कभी साथ नहीं छोड़ती, और जब छोड़ती है तो वह वाकई बुरा होता है, लेकिन, क्या किसी की परछाई सही में साथ छोड़ देती है या शायद वह हमारे साथ ही रहती है, पर दिखती नहीं! अंधेरा कभी भी घिर सकता है, बिल्कुल मुश्किलों की तरह। तब ऐसा लग सकता है कि हमारे साथ कोई भी नहीं, हम बिल्कुल अकेले हैं, लेकिन, ऐसा नहीं होता।
कभी किसी परछाई को नहीं देखा होगा आपने कि वह रंगों के पीछे भागे
दरअसल अंधेरे के कारण हम ही नहीं देख पाते। परछाई तो वहीं रहती है, बल्कि तब हमसे और भी ज्यादा सटी हुई। वह कभी दूर गई ही नहीं होती हमारे साथ चलते हुए परछाई कभी पीछे रह जाती है, कभी आगे निकल जाती है। कई बार तो वह रास्ते पर बढ़ते-बढ़ते किसी दूसरी परछाई से भी मिल आती है। इतना होने के बाद भी वह कभी हमारे ऊपर हावी नहीं होती। उसके आसपास कई रंग हैं। लेकिन कभी किसी परछाई को नहीं देखा होगा आपने कि वह रंगों के पीछे भागे। जो है जैसा है, वह संतुष्ट है उसमें।
यह भी बताती है कि आगे बढ़ने की कोई सीमा नहीं
लेकिन, इसके साथ ही वह यह भी बताती है कि आगे बढ़ने की कोई सीमा नहीं है। अगर रोशनी के साथ तालमेल सही बन जाए, तो एक छोटी-सी परछाई भी बड़ी होकर किसी को भी आगोश में ले सकती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उसमें हिचक नहीं है और आत्मविश्वास तो कूट-कूटकर भरा है। देखिए, कितनी गंदगी है सड़क पर, आजकल तो हर जगह कीचड़ ही कीचड़, ऊपर से नकारात्मक बातें।
उसे हम पर भरोसा है, तो हमें अपनी परछाई पर भरोसा क्यों नहीं
लेकिन, बढ़ती हुई परछाई जब इनके बीच से गुजरती है, तो भी इनके असर में नहीं आती। कितनी भी खराब स्थिति हो, वह उसमें से निकलती बिल्कुल साफ है। उसे किसी बात का डर नहीं है, न किसी की आलोचना का, न किसी की डांट फटकार या मार का। वह तो उस अंधेरे से भी नहीं डरती, जो उसे खत्म करने पर तुला है। उसे पता है कि अंधेरा हुआ है, पर हमेशा तो नहीं रह पाएगा। उसे हटना ही पड़ेगा और तब वह फिर सामने आ जाएगी। तब तक वह हम में समा जाती है। उसे हम पर भरोसा है, तो हमें अपनी परछाई पर भरोसा क्यों नहीं।
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