
ठीक 25 वर्ष पहले कारगिल युद्ध में भारत के वीर सपूतों ने वीरता और गौरव की नई गाथा लिखकर अनोखी मिसाल व अद्भ्य साहस का परिचय दिया था। इस विजय को देश विजय दिवस के रूप में मनाता है। जहां इस लड़ाई में भारत के 527 जवान शहीद हुए, वहीं इस लड़ाई के कई हीरोज आज भी उस दौर में हुई घटनाओं को शेयर करते हैं।
इस युद्ध में भारतीय वीर जवानों ने पाकिस्तान सेना के कब्जे से कारगिल की ऊंची चोटियों को आजाद कराया था। इस जंग में कई जवानों ने सर्वोच्च बलिदान देकर कारगिल युद्ध में देश का तिरंगा फहराया था। भारत की गौरवशाली विजय और भारतीय जवानों का बलिदान इतिहास के पन्नों पर हमेशा के लिए दर्ज है। आज उन सभी शहीदों और युद्ध से सलामत वापिस लौटे सभी सैनिकों को नमन।
घुसपैठ - युद्ध - विजय
उल्लेखनीय है कि तीन चरणों में करीब 84 दिन यह युद्ध चला। पहला चरण घुसपैठ (पाकिस्तान की भारत में घुसपैठ), दूसरा चरण युद्ध और फिर हुई विजय। बताया जाता है कि 3 मई 1999 ये वो तारीख है जब हिंदुस्तान को इस घुसपैठ का पता चला। कुछ स्थानीय चरवाहों ने भारतीय सेना के लोगों को इसके बारे में बताया। 84 दिन चले संषर्ष के बाद 26 जुलाई, 1999 को भारत ने विजय हासिल की।
आज भी उस मंजर को याद कर सिहर उठता है तन-मन
इस युद्ध में हमने पाकिस्तान को हराकर टाइगर हिल जैसी कई चोटियों पर तिरंगा झंडा फहराया था। लेकिन इस विजय को प्राप्त करने के लिए बहुत से वीर सैनिकों ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए। लेकिन बहुत से सैनिक ऐसे भी थे जो विजय पताका फहराने के बाद अपने घर लौट आए और आज भी उस मंजर को याद करते हैं तो तन-मन सिहर उठता है। ऐसे ही सैनिक है डेहरी मोहल्ला के रहने वाले नायक जयबीर सिंह जो 17 जाट रेजिमेंट से रिटायर होकर अब अपने परिवार के बीच है।
रात के अंधेरे में करते थे काम
कारगिल युद्ध के बारे में जब जयवीर सिंह से बात की गई तो उन्होंने बताया कि जिस समय युद्ध चल रहा था तो उनकी यूनिट को मोर्चे पर लड़ रहे सैनिकों के लिए खाना, रसद व हथियार पहुंचाने की जिम्मेदारी दी गई थी। पहाड़ी क्षेत्र था और दुश्मन ऊंचाई पर बैठा हुआ था। ऐसे में इस जिम्मेदारी को निभाना बड़े ही गर्व की बात थी। क्योंकि बिना रसद, खाने और हथियारों के कोई लड़ाई नहीं जीती जा सकती। उन्हें यह काम रात के अंधेरे में करना पड़ता था।
हार नहीं मानी और अपनी ड्यूटी निभाते रहे
अगर दिन में वह इस काम को अंजाम देते तो दुश्मन उन पर हमला कर सकता था। इसलिए खच्चरों पर सामान लादकर जंगली रास्तों से होते हुए वह अपने साथियों तक हथियार व अन्य सामान पहुंचने में लग रहे। एक बार तो ऐसा भी हुआ की जाते वक्त दुश्मन के गोले आसपास आकर गिरे। जिसके चलते खच्चर तो घायल हुए ही उनके कई सैनिक भी गंभीर रूप से घायल हो गए। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और अपनी ड्यूटी इसी तरह से निभाते रहे। उस समय मोबाइल की सुविधा नहीं थी तो परिवार वालों से चिट्ठियों के माध्यम से संपर्क हो पता था।
देश जश्न मना रहा था, हम चोटी पर पहुंचकर अपने शहीदों के पार्थिव शरीरों को घर पहुंचा रहे थे
उन्होंने बताया कि इस युद्ध में उन्होंने अपने बहुत से साथियों को खो दिया और जब युद्ध की समाप्ति हुई तो पूरा देश जश्न मना रहा था, लेकिन हम चोटी पर पहुंचकर अपने उन शहीद सैनिकों की पार्थिव शरीर को उनके परिवार तक पहुंचाने में लगे हुए थे और दुश्मन सैनिकों के शवों को भी वहीं पर दफना दिया।
उन्होंने बताया कि अंतिम दिन तो इस तरह के हालात थे कि कुछ सैनिकों ने तो पत्थरों से भी लड़ाई लड़ी। आज भी जब वह मंजर आंखों के सामने आता है तो शरीर सिहर उठता है। लेकिन विजय दिवस को आज भी वह अपने साथियों के साथ मिलकर मानते हैं और अपने उन खोए हुए साथियों को याद कर उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं।
उन दिनों को याद कर रोंगटे खड़े हो जाते
जयबीर सिंह की पत्नी शकुंतला ने बताया कि उन दिनों को याद कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उन्होंने बताया की जितने दिन युद्ध चला उनका दिल धक-धक करता रहता था कि कभी कोई अनहोनी की खबर ना आ जाए। क्योंकि हर रोज आसपास के गांव में किसी न किसी के शहीद होने की सूचना मिलती रहती थी और मोबाइल फोन न होने की वजह से पत्रों के माध्यम से ही थोड़ी बहुत जानकारी उन तक पहुंचती थी।
साथ ही उन्होंने बताया कि एक दिन तो एक शहीद सैनिक को श्रद्धांजलि देने पहुंचे कुछ सैनिक उनके घर आए तो वह काफी डर गई कि कहीं किसी अनहोनी की सूचना तो नहीं आ गई है। वे इस युद्ध के दौरान भगवान से प्रार्थना कर सब की सलामती की दुआ करती रही।
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