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तिरंगे का इतिहास : मौजूदा राष्ट्रीय ध्वज को बनाने, बदलने और गढ़ने-रचने की कहानी

तिरंगे का इतिहास : मौजूदा राष्ट्रीय ध्वज को बनाने, बदलने और गढ़ने-रचने की कहानी

आजादी मिलने से 23 दिन पहले यानी 22 जुलाई 1947 को संविधान सभा ने आधिकारिक ध्वज को अपनाने का फैसला किया। हालांकि, यह फैसला आसान नहीं था। उस समय भारत का कोई आधिकारिक झंडा नहीं था। आजादी मिलने से एक महीने पहले तक आधिकारिक कामों में अंग्रेजों का झंडा ही इस्तेमाल किया जाता था।

प्रतीकात्मक तस्वीर

तीन रंग का नहीं वस्त्र, ये ध्वज देश की शान है, हर भारतीय के दिलो का स्वाभिमान है, यही है गंगा, यही है हिमालय, यही हिन्द की जान है, और तीन रंगों में रंगा हुआ ये अपना हिन्दुस्तान है..... 

स्वतंत्रता संग्राम सेना और क्रांतिकारी लंबे समय तक देश को ब्रिटिश हुकूमत से आजाद कराने की लड़ाई लड़ते रहे, लेकिन काफी समय तक उनके पास भारत का अपना झंडा ही नहीं था। हालांकि, 1857 की क्रांति के बाद ब्रिटिश सरकार ने औपचारिक रूप से भारत का आधिपत्य ईस्ट इंडिया कंपनी से अपने हाथ में ले लिया था और भारत के लिए अपना झंडा चुना था।

यह झंडा भारत को ब्रिटिश उपनिवेश के तौर पर पेश करता था। बंगाल विभाजन के विरोध में पारसी बागान चौराहे पर 7 अगस्त 1906 को सर सुरेंद्र नाथ बनर्जी ने हरी, पीली और लाल/नारंगी पट्टियों वाला एक चौकोर झंडा फहराया था। इसमें सबसे ऊपर की हरी पट्टी में आठ कमल के फूल थे। बीच की पट्टी में वंदे मातरम् लिखा था।

राष्ट्रीय ध्वज की अहमियत के साथ तिरंगे झंडे की रूपरेखा पेश की

मैडम भीकाजी कामा ने इसके बाद 1907 में क्रांतिकारियों के साथ पेरिस में करीब-करीब ऐसा ही झंडा फहराया था। इसमें पहली बार केसरिया रंग भी था। फिर अगले कुछ साल तक देश के झंडे को लेकर कोई पहल नहीं की गई।

लंबे समय के बाद महात्मा गांधी ने अप्रैल 1921 में यंग इंडिया में ‘द नेशनल फ्लैग’ शीर्षक से एक आलेख लिखा। उन्होंने इसमें राष्ट्रीय ध्वज की अहमियत के साथ तिरंगे झंडे की रूपरेखा पेश की। राष्ट्रीय ध्वज के बीच में चरखे की कल्पना भी की गई थी। इसका सुझाव लाला हंसराज ने दिया था। इसी साल से शुरू हुई हमारे मौजूदा राष्ट्रीय ध्वज को बनाने, बदलने और गढ़ने-रचने की कहानी। 

1916 से 1921 तक 30 देशों के राष्ट्रीय ध्वजों पर शोध किया था

पहली बार स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पिंगली वेंकैय्या ने हरे और लाल रंग के झंडे को आकार दिया। इसे पहले उन्होंने 1916 से 1921 तक 30 देशों के राष्ट्रीय ध्वजों पर शोध किया था। महात्मा गांधी ने इसमें सफेद रंग की पट्टी भी जोड़ने को कहा। फिर केसरिया, सफेद और हरे रंग के साथ चरखे को शामिल कर झंडा तैयार किया गया। इसी झंडे को 13 अप्रैल 1923 को नागपुर में जलियांवाला बाग हत्याकांड के शहीदों को श्रृद्धांजलि देने के लिए हुई सभा में फहराया गया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने कराची अधिवेशन में 1931 में तिरंगे को भारतीय राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार करने का प्रस्ताव पारित कर दिया। साथ ही स्पष्ट किया कि राष्ट्रीय ध्वज में कोई भी सांप्रदायिक प्रतीक नहीं हैं।

संविधान सभा ने आधिकारिक ध्वज को अपनाने का फैसला किया

आजादी मिलने से 23 दिन पहले यानी 22 जुलाई 1947 को संविधान सभा ने आधिकारिक ध्वज को अपनाने का फैसला किया। हालांकि, यह फैसला आसान नहीं था। उस समय भारत का कोई आधिकारिक झंडा नहीं था। आजादी मिलने से एक महीने पहले तक आधिकारिक कामों में अंग्रेजों का झंडा ही इस्तेमाल किया जाता था। लिहाजा, जरूरी हो गया कि अपने ध्वज का निर्धारण जल्द किया जाए।

संविधान सभा ने 22 जुलाई 1947 को जो तिरंगा राष्ट्रीय ध्वज के तौर पर अपनाया था, वह 1931 का तिरंगा नहीं था। नए झंडे में लाल रंग की जगह केसरिया रंग ने ले ली। सबसे ऊपर केसरिया, बीच में सफेद और सबसे नीचे हरा रंग रख गया। केसरिया रंग देश की धार्मिक व आध्यात्मिक संस्कृति, सफेद शांति और हरा प्रकृति का प्रतीक माना गया। 

प्रस्ताव के मुताबिक, निश्चय किया कि भारत का राष्ट्रीय झंडा तिरंगा होगा

संविधान सभा में राष्ट्रीय ध्वज का प्रस्ताव पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पेश किया था। प्रस्ताव के मुताबिक, निश्चय किया जाता है कि भारत का राष्ट्रीय झंडा तिरंगा होगा। इसमें गहरे केसरिया, सफेद और गहरे हरे रंग की बराबर-बराबर की तीन आड़ी पट्टियां होंगी। सफेद पट्टी के बीच में चरखे के प्रतीक स्वरूप गहरे नीले रंग का चक्र होगा।

चक्र की आकृति सारनाथ के अशोक कालीन सिंह स्तूप के शीर्ष भाग के चक्र जैसी होगी। इसका व्यास सफेद पट्टी की चौड़ाई के बराबर होगा। राष्ट्रीय झंडे की चौड़ाई और लंबाई दो अनुपात तीन में होगी। उन्होंने कहा कि मैं गौरव, उत्साह, स्फूर्ति और उत्तेजना भर देना वाला ये झंडा आपको भेंट करता हूं। 

झंडे के केंद्रीय स्थान पर शौर्य का कोई प्रतीक रखा विचार

तिरंगे में शामिल किया गया चक्र सम्राट अशोक की विजय का प्रतीक माना जाता है। नीले रंग का ये चक्र धर्म चक्र भी कहा जाता है। इसको भारत की विशाल सीमाओं का प्रतीक भी माना गया है। दरअसल, सम्राट अशोक का साम्राज्य अफगानिस्तान से लेकर बांग्लादेश तक फैला हुआ था। लेकिन, गांधी जी चरखे की जगह चक्र को लेने से नाराज हो गए थे। उन्हें चरखा हटाए जाने का दुख था।

वहीं, बहुत से लोग चरखे को झंडे में रखने के पक्ष में नहीं थे। संविधान सभा के कई लोगों का विचार था कि झंडे के केंद्रीय स्थान पर शौर्य का कोई प्रतीक रखा जाना चाहिए। अशोक चक्र की तीलियों के नीले रंग को डॉ. बीआर आंबेडकर ने पिछड़ों और दलितों की अस्मिता का प्रतीक बताया था। 

कांग्रेस को कई अहम बातों का रखना पड़ा था ध्यान

कांग्रेस को देश के राष्ट्रीय ध्वज को लेकर अंतिम निर्णय लेने से पहले कई बातों का ध्यान रखना पड़ा था। दरअसल, स्वतंत्रता आंदोलन के समय प्रतीक के तौर पर फहराया जाने वाला झंडा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के झंडे के रूप में भी देखा जाता था। संविधान बनने की प्रक्रिया में कांग्रेस सुनिश्चित कर रही थी कि कांग्रेस के झंडे को राष्ट्रीय ध्वज ना मान लिया जाए।

भारत का राष्ट्रीय ध्वज भय और हिंसा का प्रतीक नहीं है। एस. नागप्पा के शब्दों में यह झंडा बताता है कि देश क्या चाहता है हम दूसरे देशों को कैद नहीं करना चाहते हैं। हम साम्राज्यवादी नहीं बनाना चाहते हैं। हम दूसरे देशों को अपने सामने शीश झुकाते देखना नहीं चाहते हैं।

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