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बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार या उत्तम शिक्षा का अधिकार?

बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार या उत्तम शिक्षा का अधिकार?

डॉ. अमर पटनायक, संसद राज्य सभा के पूर्व सदस्य

प्रतीकात्मक तस्वीर

भारत को अपनी बड़ी और युवा आबादी से पूरी तरह से लाभान्वित होने के लिए युवाओं को उच्च गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करना आवश्यक है। निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 (RTE) जैसे कानूनों के बावजूद हमारी शिक्षा प्रणाली हमारे बच्चों के लिए सीखने के परिणाम सुनिश्चित करने में असफल रही है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 (एनईपी), एक समग्र सुधार का प्रस्ताव रखती तो है मगर हमारे स्कूल विनियमन ढांचे में अड़चनों के कारण इसका सम्पूर्ण लाभ लेने में असमर्थ सिद्ध होती दिख रही है।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम में समस्याएं : 

15 साल पहले जब RTE अधिनियम लागू किया गया था, तब हमारी शिक्षा प्रणाली के सामने एक प्रमुख चुनौती यह थी कि भारत के बच्चों तक स्कूली शिक्षा नहीं पहुंच पाती थी। RTE अधिनियम ने इस चुनौती का समाधान किया, जिसका मुख्य उद्देश्य पूरे देश में प्राथमिक शिक्षा को सुलभ बनाना था। कई राज्यों ने हर एक किलोमीटर पर प्राथमिक विद्यालय की स्थापना अनिवार्य कर दी। परिणामस्वरूप, भारत में स्कूल नेटवर्क का विस्तार हुआ और हमें सभी कक्षाओं में नामांकन दर में व्यापक बढ़ोतरी देखने को मिली। मगर यह सफलता सिर्फ एकतरफा पुष्ट हुई।

प्रावधान जैसे कि शिक्षकों कि लिए न्यूनतम कार्य घंटे, सभी मौसम वाले भवन की अनिवार्यता, दोपहर का भोजन पकाने के लिए रसोई, और छात्र-शिक्षक अनुपात की परिभाषाओं में असंवेदनशीलता के कारण RTE के क्रियान्वन में काफी चुनौतियाँ नज़र आई। कुछ अध्ययनों से पता चला कि इस अधिनियम के लागू होने के एक दशक बाद भी केवल 13% स्कूल में ही ये सभी प्रावधान मौजूद थीं। विशेष रूप से छोटे स्कूलों को प्रत्येक कक्षा पर एक शिक्षक, पुस्तकालय, खेल का मैदान और प्रधान अध्यापक के लिए एक अलग कक्ष जैसी आवश्यकताओं को पूरा करने में संघर्ष करना पड़ा। जिन स्कूलों ने छात्र-शिक्षक अनुपात (PTR) की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अधिक शिक्षकों को नियुक्त किया, वे हर शिक्षक के लिए एक कक्ष सुनिश्चित नहीं कर पाए। यह स्पष्ट है कि इनपुट-केंद्रित आवश्यकताओं ने राज्य की और किफायती निजी स्कूलों की सीमित क्षमता को नज़रअंदाज़ किया, अधिनियम के तहत होने वाले बदलाव ने खर्चों को बढ़ाया, और स्कूल संचालन में बाधा उत्पन्न की।

इस बीच, एनुअल स्टेटस ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट (ASER) जैसे नियमित सर्वेक्षणों ने छात्रों के शिक्षा के परिणामों में कोई सुधार नहीं दिखाया। रिपोर्ट ने बताया कि बीते एक दशक में हमारे बच्चों के सीखने के स्तर ने किसी भी सुधार की तरफ रुख नहीं किया।

आगे का रास्ता : 

भारत को अपनी शिक्षा प्राथमिकताओं में तत्काल बुनियादी परिवर्तन की आवश्यकता है। वर्तमान में बदलावों के मद्देनज़र क्या परिणाम निकलकर आते हैं, उस पर विषेश ध्यान देने की ज़रूरत है। इनपुट पर जो ध्यान केंद्रित है, उसे बदलकर छात्रों की शिक्षा प्राप्ति के प्रति जवाबदेही को प्राथमिकता देनी होगी। राज्य शिक्षा विभागों पर शिक्षा क्षेत्र को विनियमित करने और अपने स्कूलों को संचालित करने की दोहरी ज़िम्मेदारी का बोझ है, जिसमें उनकी नियामक भूमिका सरकारी स्कूलों में अच्छी शिक्षा प्रदान करने से ध्यान भटकाती है। इसे हल करने के लिए, राज्यों को तत्काल एक स्वतंत्र नियामक निकाय (इंडिपेंडेंट रिगुलेटरी बॉडी) की आवश्यकता है जो सभी स्कूलों, चाहे वे सरकारी हों या निजी, की निगरानी और विनियमन के कार्य से सरकारी शिक्षा विभाग को भारमुक्त कर सके। 

ऐसा नियामक - राज्य विद्यालय मानक प्राधिकरण (SSSA), जिसका ज़िक्र राष्ट्रीय शिक्षा नीति में किया गया है, को शिक्षा के परिणामों पर ध्यान केंद्रित करने का कार्य सौंपा गया है। यह सभी स्कूलों की गुणवत्ता के मानकों पर प्रत्येक स्कूल का प्रदर्शन आम जनता के लिए सार्वजनिक करेगा। वर्तमान में माता-पिता स्कूलों की 'शिक्षा की गुणवत्ता’ के बारे में बहुत कम जानते हैं। इस तरह की जागरूकता के अभाव में, स्कूल और परिवार के बीच संवाद का स्तर काफी निम्न रहता है और छात्र की शिक्षा के बारे में सार्थक चर्चा नहीं होती। गुणवत्ता की इस सरल पारदर्शिता से छात्र और माता-पिता बेहतर निर्णय और चुनाव कर पाएंगे, जिससे स्कूल उनकी मांगों के प्रति जवाबदेह बनेंगे। गुणवत्ता की इस सरल पारदर्शिता से स्कूल प्रशासन, विद्यालय प्रवेश मार्केटिंग और शिक्षण-सीखने की प्रक्रियाओं में व्यापक सुधार हो सकते हैं। 

यह नीति एक क्षमता-आधारित राज्यव्यापी डायग्नोस्टिक स्टेट असेसमेंट सर्वे (SAS) की सिफारिश भी करती है, जो हर स्कूल में छात्रों के लिए एक परीक्षा की तरह आयोजित किया जाएगा, लेकिन इसका छात्रों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और न ही उनकी तुलना की जाएगी। बल्कि यह तो स्कूलों के सिखाने के स्तर का सूचक होगा और उनकी गुणवत्ता के मानकों में से एक होगा। सर्वोत्तम शासन सुधार के लिए इस मूल्यांकन के परिणामों का उपयोग न केवल स्कूलों की गुणवत्ता की रिपोर्टिंग के लिए किया जाना चाहिए, बल्कि उनके शिक्षा स्तरों के सुधार के लिए भी किया जाना चाहिए। 

यह बेहद ज़रूरी है कि यह नियामक स्वतंत्र , स्वायत्त और सशक्त हो, ताकि वह सभी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार कर सके और प्रभावी निगरानी सुनिश्चित कर सके। सशक्त माता-पिता भी हिस्सेदार बनकर इस प्रक्रिया में शामिल हो पाएंगे। जैसा कि ओडिशा में समुदाय-नेतृत्व वाले 5T हाई स्कूल ट्रांसफॉर्मेशन प्रोग्राम में देखा गया, जहां पूर्व छात्रों के एक समूह ने एक साथ मिलकर वर्त्तमान छात्रों के लिए उच्च-गुणवत्ता की शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए काम किया। 

निष्कर्ष: 

SSSA की असीम संभावनाओं के बावजूद एक भी राज्य अभी तक इसकी स्थापना सही रूप में नहीं कर पाया है, और ये धीमी गति महत्वपूर्ण सवाल उठाती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के चार वर्ष बाद भी SSSA आखिर कहां है, और स्पष्ट परिवर्तन की आवश्यकता के बावजूद इसके गठन में हिचकिचाहट क्यों है? 

शिक्षा प्रणाली के विस्तार के लिए RTE एक महत्वपूर्ण पहल थी। 8वीं कक्षा तक सकल नामांकन अनुपात (ग्रॉस एनरॉलमेंट रेशियो) लगभग 99% तक पहुंचने के साथ उस उद्देश्य की पूर्ति हो चुकी है। अब आवश्यकता है कि यह ढांचा विस्तृत हो और इसका मूल मकसद छात्रों के सीखने की क्षमता को बढ़ाने की ओर हो। ओडिशा के हाई स्कूल में जो परिवर्तन देखने को मिले, उसने यह उदाहरण पेश किया कि यदि छात्रों की सीखने की क्षमता को प्राथमिक लक्ष्य बनाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति हो, तो समाधान स्वतः ही सामने आ जाते हैं। इस तरह सुधारों को लागू करने के लिए जिस मानसिकता को पूरे देश में स्कूल प्रशासन और विनियमन (रेगुलेशन) का मूल सिद्धांत बनाना होगा, वह है विद्यार्थियों को उत्तम शिक्षा प्रदान करने के प्रति जुनून।

यदि हम वास्तव में भारत के बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करने के प्रति गंभीर हैं, तो यह बदलाव चाहे कितना भी जटिल क्यों न हो, इसे अब और टाला नहीं जा सकता। कार्य करने का समय अब है, क्योंकि कल की प्रगति उस शिक्षा पर निर्भर करती है जो हम आज प्रदान करते हैं। सभी सांसद जल्द से जल्द RTE अधिनियम में संशोधन की मांग करें और राज्य विधान सभाएं भी अपने सम्बंधित अधिनियमों और नियमों की समीक्षा करें ताकि उनके स्कूलों का ध्यान केवल इनपुट मानकों पर केंद्रित होने के बजाय परिणामों के प्रति जवाबदेही पर भी हो।

अस्वीकरण (डिस्क्लेमर): ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं। यह लेख का अंग्रेजी संस्करण हिंदुस्तान टाइम्स में छप चुका है।

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