
राजस्थान की मिट्टी में बसी परंपरागत हस्तशिल्प कला को सहेजने वाले मदनमोहन इस बार 38वें मेले में अपनी अनोखी विरासत लेकर पहुंचे हैं। डीडवाना जिले के भावता गांव से आए मदनमोहन विलुप्त होती कठपुतली कला को आगे बढ़ा रहे हैं।
1987 में पहली बार इस मेले में कठपुतली की गुड़ियों की दुकान लगाई थी
उनके पिता मंगलाराम और माता भंवरी देवी ने 1987 में पहली बार इस मेले में कठपुतली की गुड़ियों की दुकान लगाई थी। उस समय मंगलाराम मजदूरी करने के लिए मेले में आए थे, लेकिन जब उनकी पत्नी भंवरी देवी को पता चला कि मेले में हस्तशिल्पी अपने सामान के साथ आ रहे हैं, तो उन्होंने भी अपने घर पर बनने वाले हस्तशिल्प सामान की दुकान लगाने का निर्णय लिया। इसके बाद साल 2015 तक यह परिवार लगातार मेले में आता रहा।
उनके पिता मंगलाराम ने मेले में मजदूरी
मदनमोहन बताते हैं कि उनके पिता मंगलाराम ने मेले में मजदूरी की, जबकि उनकी माता ने मेले की दीवारों को मिट्टी और गोबर से लीपा था। इस बार मदनमोहन अपनी दुकान पर उन पारंपरिक वस्तुओं को लेकर आए हैं, जो अब लोगों को देखने को भी नहीं मिलतीं। इनमें पुराने समय में अनाज पीसने के लिए इस्तेमाल होने वाली चक्की भी शामिल है।
उनका उद्देश्य सिर्फ सामान बेचना नहीं, बल्कि अपनी परंपरागत कला को जीवित रखना
मदनमोहन का कहना है कि उनका उद्देश्य सिर्फ सामान बेचना नहीं, बल्कि अपनी परंपरागत कला को जीवित रखना भी है। उनका मानना है कि बदलते दौर में हस्तशिल्प की यह धरोहर विलुप्त होती जा रही है, जिसे बचाने के लिए नई पीढ़ी को इसे अपनाना होगा।
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