रीतिका हुड्डा का सफर एक प्रेरणादायक कहानी है जो दिखाती है कि दृढ़ संकल्प और कड़ी मेहनत से कैसे सपने साकार होते हैं। हरियाणा के एक छोटे से गांव से निकलकर ओलंपिक के मंच तक पहुंचना कोई छोटी उपलब्धि नहीं है।
बचपन से कुश्ती का जुनून
रीतिका ने महज 9 साल की उम्र में कुश्ती शुरू की थी। उनके पिता जगबीर हुड्डा, जो एक किसान हैं, ने उन्हें पहले हैंडबॉल खेलने के लिए प्रोत्साहित किया था। लेकिन जल्द ही उन्होंने महसूस किया कि व्यक्तिगत खेल में बेहतर अवसर हैं। 2015 में, रीतिका को छोटू राम अखाड़े में ले जाया गया, जहां कोच मंदीप ने उनकी प्रतिभा पहचानी।
चुनौतियों का सामना
रीतिका के सफर में कई उतार-चढ़ाव आए। जब उनका चयन कॉमनवेल्थ और एशियन गेम्स के लिए नहीं हुआ, तो उन्होंने कुश्ती छोड़ने का मन बना लिया था। लेकिन उनके माता-पिता और कोच के समर्थन ने उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। रीतिका ने इस अनुभव से सीखा और अपने खेल पर और अधिक ध्यान केंद्रित किया।
ओलंपिक की तैयारी
पेरिस ओलंपिक की तैयारी के लिए रीतिका ने कड़ी मेहनत की। उन्होंने रोजाना 7 घंटे अभ्यास किया, अपनी स्पीड और तकनीक पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वियों के खेल का अध्ययन किया और उनके अनुसार रणनीति बनाई। रीतिका की सफलता में उनके परिवार और कोच की बड़ी भूमिका रही है। उनके पिता उनके लिए पोषण और खेल सामग्री का ध्यान रखते हैं, जबकि मां उनके खान-पान का ख्याल रखती हैं। कोच मंदीप ने उन्हें तकनीकी रूप से मजबूत बनाया है।
उल्लेखनीय उपलब्धियां
रीतिका की सबसे बड़ी उपलब्धि अंडर-23 वर्ल्ड चैंपियनशिप में गोल्ड मेडल जीतना रही है। वे यह उपलब्धि हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला पहलवान हैं। यह जीत उनके लिए ओलंपिक की तैयारी में एक बड़ा बूस्टर साबित हुई।
अब, पेरिस ओलंपिक में 76 किलोग्राम वर्ग में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए, रीतिका का लक्ष्य स्पष्ट है - गोल्ड मेडल जीतना। उनका कहना है कि वे किसी भी चीज को अपने दिमाग पर हावी नहीं होने देंगी और पूरे आत्मविश्वास के साथ खेलेंगी।
रीतिका हुड्डा की कहानी युवा खिलाड़ियों के लिए एक प्रेरणा है। यह दिखाती है कि कठिन परिश्रम, दृढ़ संकल्प और सही मार्गदर्शन से कोई भी लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। पेरिस ओलंपिक में उनके प्रदर्शन पर पूरे देश की नजरें टिकी हैं, और उम्मीद है कि वे भारत के लिए एक और स्वर्ण पदक लेकर आएंगी।
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